हम घर पर सोए रहें और क्रांति हो जाए ये संभव नहीं है

हमारी व्यवस्था का ये बदनुमाँ दाग कहीं इतना बड़ा न हो जाए कि हमारी तरक्की के उजले सूरज को ही निगल ले...!! बस यही डर हमें सता रहा है। हमें पता था कि हमारे यहाँ सब कुछ ठीक नहीं है। दाल में कुछ काला जरूर है। कुछ गड़बड़ियाँ हैं जो आटे में नमक की तरह मिली हुई हैं। लेकिन एक के बाद एक ऐसे तथ्य सामने आ रहे हैं कि लग रहा है कि मानो पूरी दाल ही काली है, आटे में नमक का प्रतिशत इतना हो गया है कि आटा तो अब ढूँढे नहीं मिल रहा।

लोकतंत्र के साथ मिले अधिकारों का पूरी व्यवस्था ने मिलकर इस कदर दुरुपयोग किया है कि अब वो कॉमनवेल्थ गेम्स घोटाला, आदर्श सोसायटी, 2 जी स्पेक्ट्रम, एस-बैंड और न जाने किस-किस रूप में सामने आ रही है। ये सारी गंदगी अब तक तो नालियों के भीतर बह रही थी, लेकिन अब वो सड़क पर बहकर बुरी तरह बदबू मार रही है।

हर वो 'आदर्श' जिस पर हमने भरोसा किया, वो भरभरा के ढह रहा है। हम कहाँ देखें, किसके पास जाएँ? देश से प्रदेश पर आएँ तो भी वो ही। अपने शहर को देखें तो भी वो ही। मोहल्ले में भी भ्रष्टाचार के ये काले धब्बे कभी अवैध नल कनेक्शन तो कभी गलत निर्माण के रूप में हमारे उजालों का रास्ता रोक लेते हैं।

तो क्यों ना हमारे भीतर भी मिस्र जैसी अकुलाहट जन्म ले? क्यों ना हम भी चाहें कि इस सब को बदल दो ..क्रांति कर दो? निश्चित ही क्रांति को होते हुए देखने से ज्यादा रोमांचक है खुद उसका हिस्सा हो जाना। लेकिन बस एक मिनट टीवी पर क्रांति होते हुए देखना और उसे करने के लिए सड़क पर निकल पड़ने के बीच बड़ा फासला है। हम घर पर सोए रहें और क्रांति हो जाए ये संभव नहीं है।

साभार उम्मेद सिंह  शेखावत करीरी 
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