इस्लाम में धर्मान्तरण के मुख्य कारण थे मृत्यु भय, परिवार को गुलाम बनाये जाने का भय, आर्थिक लोभ (पारितोषिक, पेन्शन, लूत का माल) धर्मान्तरित होने वालों के पैतृक धर्म में प्रचलित अन्धविश्वास और अंत में इस्लाम के प्रचारकों द्वारा किया गया प्रभावशाली प्रचार - (जाफर मक्की द्वारा 19 दिसम्बर, 1421 को लिखे गये एक पत्र से।
- इण्डिया आफिस हस्तलेख संख्या 1545.
०१ भूमिका
इस तथ्य को सभी स्वीकार करते हैं कि लगभग ९५ प्रतिशत भारतीय मुसलमानों केपूर्वज हिन्दू थे। वह स्वधर्म को छोड़कर कैसे मुसलमान हो गये? इस पर तीव्र विवाद है। अधिकां हिन्दू मानते हैं कि उनको तलवार की नोक पर मुसलमान बनाया गया अर्थात् वे स्वेच्छा से मुसलमान नहीं बने। मुसलमान इसका प्रतिवाद करते हैं। उनका कहना है कि इस्लाम का तो अर्थ ही शांति का धर्म है। बलात धर्म परिवर्तन की अनुमति नहीं है। यदि किसी ने ऐसा किया अथवा करता है तो यह इस्लाम की आत्मा के विरुद्ध निंदनीय कृत्य है। अधिकांश हिन्दू मुसलमान इस कारण बने कि उन्हें दम घुटाऊ धर्म की तुलना में समानता का संदेद्गा लेकर आने वाला इस्लाम उत्तम लगा।
वास्तविकता क्या है? यही इस छोटी सी पुस्तिका का विषय है। हमने अधिकतर मुस्लिम इतिहासकारों और मुस्लिम विद्वानों के उद्धरण देकर नि ष पक्ष भाव से यह पता लगाने की चेष्टा की है कि इन परस्पर विपरीत दावों में कितनीसत्यता है
०२ प्राक्कथन
भारत की राजनीति मुस्लिम साम्प्रदायिकता के जहर से ओतप्रोत दीख रही है। भारतीय मूल के मुसलमान भी इससे कम भ्रमित नहीं है। भारतीय मुसलमानों के पूर्वज इस्लाम धर्म स्वीकार करने केपूर्व हिन्दू ही थे। इनके पुरखे हिन्दू धर्म में अगाध निष्ठा रखते थे। इनके रगों में हिन्दू संस्कृति का ही रक्त प्रवाहित है। यह आवद्गयक है कि भारतवासी यह जाने कि भारतीय मुसलमानों के पूर्वज जो हिन्दू थे वेकिस परिस्थिति में मुसलमान हुये, तभीउनके मुसलमान होने के कारण का उन्हेंपता चल सकेगा और वर्तमान में उन्हें भारत और भारतीयता के सम्बन्ध में निर्णय लेने में सहूलियत होगी।
लेखक ने 'भारतीय मुसलमानों के हिन्दूपूर्वज' नामक ग्रन्थ में ऐतिहासिक सत्य के आधार पर यह दिखाने का प्रयास किया है कि भारतीय मूल के मुसलमान विचार या जीवन-दर्शन से प्रभावित होकर मुसलमान नहीं बने वरन् बलात उनके पूर्वजों को इस्लाम धर्म कबूल कराया गया है। किस प्रकार विधर्मी मुसलमानों ने भारतीय मुसलमानों की माताओं का यौन शोषण कर बलात्कारी रूपमें उन्हें हिन्दू धर्म छोड़ने के लिएविवश किया, और उन्हें इस्लाम धर्म कबूल कराया।
वस्तुतः इतिहास के तथ्यों के आलोक में धार्मिक अंधविद्गवास के कारण वे आज अपने पूर्वजों को भूल चुके हैं। इस ग्रन्थ के अध्ययन से उन्हें अनुभवहोगा कि वे भी हिन्दू समाज के ही अंग हैं। भारतीय मुसलमानों के समक्षयह बहुत बड़ा प्रश्न है। इस ग्रन्थ से उन्हें अपने पूर्वजों की जानकारी मिलेगी। एक ओर उन्हें अनन्त काल का गौरवमय इतिहास मिलेगा और दूसरी ओर चार-पाँच सौ साल की बर्बरता का इतिहास।
पुस्तक में यद्यपि संक्षेप में ही लिखा गया है परन्तु सभी विदेशी मुस्लिम शासक इस्लामीकरण को राजधर्ममानते हुये भारत व भारतवासियों पर अत्याचार करते रहे। जिन्होंने अत्याचार का सामना किया उन पर अनेक प्रकार के प्रशासनिक दबाब और समाज सेवहिष्कार कर उन्हें घृणित कार्य करने के लिए विवया किया।
हमारा विश्वास है यह पुस्तक प्रारम्भिक दृष्टि से बहुत ही उपयोगी है। इस संदर्भ में और भी विशिष्ट शोध की आवश्यकता है। इस विषयमें सच्चे इतिहास को प्रस्तुत करने के लिए इतिहासकार आगे आयेंगे। विद्गाय इतना गंभीर है कि लघु में इसका सरल विवेचन संभव नहीं। इसके लिये बृहद कार्य करने की आवश्यकता है। यह एक अच्छी कृति है। पठन-मनन करने पर भ्रमित दृष्टिकोण से परिवर्तन संभव है, कुंठायें और भ्रातियां दूर होंगी। संद्गायों का निराकरण होगा और एक सम्यक भारतीय समाज को इससे बल मिलेगा।
१.कितना सच-कितना झूठ
इस्लाम भारत में कैसे फैला, शांति पूर्वक अथवा तलवार के बल पर? जैसा कि हम आगे विस्तार से बतावेंगे कि इस्लाम का विश्व में (और भारत में भी)विस्तार दोनों प्रकार ही हुआ है। उसके शांति-पूर्वक फैलने के प्रमाण दक्षिणी-पूर्वी एशिया के, वे देश हैं जहाँ अब मुसलमान पर्याप्त और कहीं-कहीं बाहुल्य संखया में हैं; जैसे-इंडोनेशिया, मलाया इत्यादि। वहाँ मुस्लिम सेनाएँ कभी नहीं गईं। वह वृहत्तर भारत के अंग थे। भारत के उपनिवेश थे। उनका धर्म बौद्ध और हिन्दू था। किन्तु इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इस्लाम निःसंदेह तलवार के बल पर भी फैला। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि इस्लाम में गैर-मुसलमानों का इस्लाम में धर्म परिवर्तन करने से अधिक दूसरा कोई भी पुण्य कार्य नहीं है। इस कार्य में लगे लोगों द्वारा युद्ध में बलिदान हो जाने से अधिक प्रशंसनीय और स्वर्गके द्वार खोलने का अन्य कोई दूसरा साधन नहीं है।
इस्लाम का अत्यावश्यक मिशन पूरे विश्व को इस्लाम में दीक्षित करना है-कुरान, हदीस, हिदाया और सिरातुन्नबी, जो इस्लाम के चार बुनियादी ग्रंथ हैं, मुसलमानों को इसके आदेश देते हैं। इसलिए मुसलमानों के मन में पृथ्वी पर कब्जाकरने में कोई संशय नहीं रहा। हिदाया स्पष्ट रूप से काफिरों पर आक्रमण करने की अनुमति देता है, भले ही उनकी ओर से कोई उत्तेजनात्मक कार्यवाही न भी की गई हो। इस्लाम के प्रचार-प्रसार के धार्मिक कर्तव्य को लेकर तुर्की ने भारत पर आक्रमण में कोई अनैतिका नहीं देखी। उनकी दृष्टि में भारत में बिना हिंदुओं को पराजित ओर सम्पत्ति से वंचित किये, इस्लाम का प्रसार संभव नहीं था। इसलिए इस्लाम के प्रसार का अर्थ हो गया, 'युद्ध और (हिंदुओं पर) विजय।'(१)
वास्तव में अंतर दृष्टिकोण का है। यहसंभव है कि एक कार्य को हिन्दू जोर-जबरदस्ती समझते हों और मुसलमान उसे स्वेच्छा समझते हों अथवा उसे दयाजनित कृत्य समझते हों। पहले का उदाहरण मोपला विद्रोह के समय मुसलमान मोपलाओं द्वारा मालाबार में२०,००० हिन्दुओं के 'बलात् धर्मान्तरण' पर मौलाना हसरत मोहानी द्वारा कांग्रेस की विषय समिति में की गई, वह विखयात टिप्पणी है जिसने गाँधी इत्यादि कांग्रेस के शीर्षस्थनेताओं की जुबान पर ताले लगा दिये थे। उन्होंने कहा था-
''(मालाबार) दारुल हर्ब (शत्रु देश) हो गया था। मुस्लिमविद्रोहियों को शक (केवल शक) था कि हिन्दू उनके शत्रुअंग्रेजों से मिले हुए हैं। ऐसी दशा में यदि हिन्दुओं ने मृत्युदंड से बचने के लिये इस्लाम स्वीकार कर लियातो यह बलात् धर्मान्तरण कहाँ हुआ? यह धर्म परिवर्तन तो स्वेच्छा से ही माना जायेगा।''(१क)
दूसरे दृष्टिकोण का उदाहरण, अब्दल रहमान अज्जम अपनी पुस्तक ''द एटरनल मैसेज ऑफ मौहम्मद'' में प्रस्तुत करते हैं। उनका कहना है- ''जब मुसलमानमूर्ति पूजकों और बहुदेवतावादियों के विरुद्ध युद्ध करते हैं तो वह भी इस्लाम के मानव भ्रातृत्ववाद के महत्त्वपूर्ण सिद्धांत के अनुकूल हीहोता है। मुसलमानों की दृष्टि में, देवी-देवताओं की पूजा से निकृष्ट विश्वास दूसरा नहीं है। मुसलमानों की आत्मा, बुद्धि और परिणति इस प्रकार के निकृष्ट विश्वासधारियों को अल्लाह के क्रोध से बचाने के साथ जुड़ी हुई है। जब मुसलमान इस प्रकार के लोगों को मानवता के नाते अपना बन्धु कुबूल करते हैं तो वे अल्लाह के कोप से उनको बचाने को अपना कर्तव्य समझकर उन्हें तब तक प्रताड़ित करते हैं, जब तब कि वे उन झूठे देवी देवताओं में विश्वास को त्यागकर मुसलमान न हो जायें। इस प्रकार के निकृष्ट विश्वास को त्यागकर मुसलमान हो जाने पर वे भी दूसरे मुसलमानों के समान व्यवहार के अधिकारी हो जाते हैं। इस प्रकार के निकृष्ट विश्वास करने वालों के विरुद्ध युद्ध करना इस कारण से एक दयाजनित कार्य है क्योंकि उससे समान भ्रातृत्ववाद को बल मिलता है।''(२)
कुरान में धर्म प्रचार के लिये बल प्रयोग के विरुद्ध कुछ आयते हैं किन्तु अनेक विशिष्ट मुस्लिम विद्वानों का यह भी कहना है कि काफिरों को कत्ल करने के आदेश देने वाली आयत (९ : ५) के अवतरण के पश्चात्कुफ्र और काफिरों के प्रति किसी प्रकार की नम्रता अथवा सहनशीलता का उपदेश करने वाली तमाम आयतें रद्द करदी गयी हैं।(३) शाहवली उल्लाह का कहना है कि इस्लाम की घोषणा के पश्चात् बल प्रयोग, बल प्रयोग नहीं है। सैयद कुत्व का कहना है कि मानव मस्तिष्क और हदय को सीधे-सीधे प्रभावित करने से पहले यह आवश्यक हे कि वे परिस्थितियाँ, जो इसमें बाधा डालती हैं, बलपूर्वक हटा दी जायें।'(४) इस प्रकार वह भी बल प्रयोगको आवश्यक समझते हैं। जमाते इस्लामी के संस्थापक सैयद अबू आला मौदूदी बल प्रयोग को इसलिए उचित ठहराते हैं कि ''जो लोग ईद्गवरीय सृष्टि के नाज़ायज मालिक बन बैठे हैं और खुदा के बन्दों को अपना बंदा बना लेते हैं, वे अपने प्रभुत्व से,महज नसीहतों के आधार पर, अलग नहीं हो जाये करते- इसलिए मौमिन (मुसलमान) को मजबूरन जंग करना पड़ता है ताकि अल्लाह की हुकूमत (इस्लामी हुकूमत) की स्थापना के रास्ते में जो बाधा हो, उसे रास्ते से हटा दें।'(५) यहाँ यह बता देना आवश्यक है कि इस्लाम के अनुसार पृथ्वी के वास्तविक अधिकारी अल्लाह, उसके रसूल मौहम्मद और उनके उत्तराधिकारी मुसलमान ही हैं।(६) इनके अतिरिक्त, जोभी गैर-मुस्लिम शासक हैं, वे मुसलमानों के राज्यापहरण के दोषी हैं। अपहरण की गई अपनी वस्तु को पुनः प्राप्त करने के लिये लड़ा जाने वाला युद्ध तो सुरक्षात्मक ही होता है।
१९ दिसम्बर १४२१ के लेख के अनुसार, जाफर मक्की नामक विद्वान का कहना है कि ''हिन्दुओं के इस्लाम ग्रहण करने के मुखय कारण थे, मृत्यु का भय, परिवार की गुलामी, आर्थिक लोभ (जैसे-मुसलमान होने पर पारितोषिक , पेंशन औरयुद्ध में मिली लूट में भाग), हिन्दू धर्म में घोर अन्ध विश्वास और अन्त में प्रभावी धर्म प्रचार।(७)
अगले अध्यायों में हम इतिहास से यह बताने का प्रयास करेंगे कि किस प्रकार भारतीय मुसलमानों के हिन्दू पूर्वजों का इन विविध तरीकों से धर्मपरिवर्तन किया गया
२. आर्थिकलोभ
शासकों द्वारा स्वार्थ जनित मुस्लिम तुष्टिकरण
मौहम्मद साहब के जीवन काल से बहुत पहले से, अरब देशों का दक्षिणी-पूर्वी देशों से समुद्री मार्ग द्वारा भारत के मालाबार तट पर होते हुए बड़ा भारी व्यापार था। अरब नाविकों का समुद्र पर लगभग एकाधिकार था। मालाबार तट पर अरबों का भारत से कितना व्यापार होता था, वह केवल इस तथ्य से समझा जा सकता है कि अरब देश से दस हजार (१०,०००) घोड़े प्रतिव र्ष भारत में आयत होते थे।(९) और इससे कहीं अधिक मूल्य का सामान लकड़ी, मसाले, रेशम इत्यादि निर्यात होते थे। स्पष्ट है कि दक्षिण भारत के शासकों की आर्थिक सम्पन्नता इस व्यापार पर निर्भर थी। फलस्वरूप् भारतीय शासक इन अरब व्यापारियों और नाविकों को अनेक प्रकार से संतुष्ट रखने का प्रयास करते थे। मौहम्मद साहब के समय में ही पूरा अरब देद्गा मुसलमान हो गया, तो वहाँ से अरब व्यापारी मालाबार तट पर अपने नये मत का उत्साह और पैगम्बर द्वारा चाँद केदो टुकड़े कर देने जैसी चमत्कारिक कहानियाँ लेकर आये। वह भारत का अत्यन्त अवनति का काल था। न कोई केन्द्रीय शासन रह गया था और न कोई राष्ट्रीय धर्म। वैदिक धर्म का हास हो गया था और अनेकमत-मतान्तर, जिनका आधार अनेक प्रकार के देवी-देवताओं में विश्वास था, उत्पन्न हो गये थे। मूर्ति पूजा और छुआछूत का बोलबाला था। ऐसे अवनति काल में इस्लाम एकेश्वरवाद और समानता का संदेश लेकर समृद्ध व्यापारी के रूप में भारत मेंप्रविष्ट हुआ। मौहम्मद साहब की शिक्षाओं ने, जो एक चमत्कार किया है वह, यह है कि प्रत्येक मुसलमान इस्लाम का मिशनरी भी होता है और योद्धा भी। इसलिए जो अरब व्यापारी औरनाविक दक्षिण भारत में आये उन्होंने इस्लाम का प्रचार प्रारंभ कर दिया। जिस भूमि पर सैकड़ों मत-मतान्तर हों और हजारों देवी-देवता पूजे जाते हों वहाँ किसी नये मत को जड़ जमाते देर नहीं लगती विशेष रूप से यदि उसके प्रचार करने वालों में पर्याप्त उत्साह हो ओर धन भी।
अवश्य ही इस प्रचार के फलस्वरूप हिन्दुओं के धर्मान्तरण के विरुद्ध कुछ प्रतिक्रिया भी हुई और अनेक स्थानों पर हिन्दू-मुस्लिम टकराव भी हुआ। क्योंकि शासकों की समृद्धि और ऐश्वर्य मुसलमान व्यापारियों पर निर्भर करता था, इसलिए इस प्रकार के टकराव में शासक उन्हीं का पक्ष लेते थे, और अनेक प्रकार से उनका तुष्टीकरण करते थे। फलस्वरूप् हिन्दुओं के धर्मान्तरण करने में बाधा उपस्थित करने वालों को शासन बर्दाश्त नहीं करता था। अपनी पुस्तक 'इंडियन इस्लाम' में टाइटस का कहना हैकि ''हिन्दू शासक अरब व्यापारियों का बहुत ध्यान रखते थे क्योंकि उनके द्वारा उनको आर्थिक लाभ होता था और इस कारण हिन्दुओं के धर्म परिवर्तन में कोई बाधा नहीं डाली जा सकती थी। केवल इतना ही नहीं, अत्यन्त निम्न जातियों से धर्मान्तरित हुए भारतीय मुसलमानों को भी शासन द्वारा वही सम्मान और सुविधाएँ दी जाती थीं जो इन अरब (मुसलमान) व्यापारियों को दी जाती थी।''(९) ग्यारहवीं शताब्दी के इतिहासकार हदरीसों द्वारा बताया गयाहै कि ''अनिलवाड़ा में अरब व्यापारी बड़ी संखया में आते हैं और वहाँ के शासक और मंत्रियों द्वारा उनकी सम्मानपूर्वक आवभगत की जाती है और उन्हें सब प्रकार की सुविधा और सुरक्षा प्रदान की जाती है।''(१०) दूसरा मुसलमान इतिहासकार, मौहम्मद ऊफी लिखता है कि कैम्बे के मुसलमानोंपर जब हिंदुओं ने हमला किया तो वहाँ के शासक सिद्धराज (१०९४-११४३ ई.) ने, नकेवल अपनी प्रजा के उन हिंदुओं को दंड दिया अपितु उन मुसलमानों को एक मस्जिद बनाकर भेंद की।(११) एक शासक तो अपने मंत्रियों समेत अरब देश जाकरमुसलमान ही हो गया।(१२)
३. मृत्यु का भय और परिवार की गुलामी
'इस्लाम का जन्म जिस वातावरण में हुआ था वहाँ तलवार की सर्वोच्च कानून था और है।........मुसलमानों में तलवार आज भी बहुतायत से दृष्टिगोचर होती है। यदि इस्लाम का अर्थ सचमुच में ही 'शांति' है तो तलवार को म्यान में बंद करना होगा।' (महात्मा गाँधी : यंग इंडिया, ३० सित; १९२७)
जहाँ दक्षिण भारत में इस्लाम, शासकोंके आर्थिक लोभ के कारण एवं मुस्लिम व्यापारियों के शांतिपूर्ण प्रयासोंद्वारा पैर पसार रहा था, वहीं उत्तर भारत में वह अरब, अफगानी, तूरानी, ईरानी, मंगोल और मुगल इत्यादि मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा कुरान औरतलवार का विकल्प लेकर प्रवि ष्ट हुआ। इन आक्रान्ताओं ने अनगिनत मंदिर तोड़े, उनके स्थान पर मस्जिद, मकबरे, औरखानकाहें बनाए। उन मस्जिदों की सीढ़ियों पर उन उपसाय मूर्तियों के खंडित टुकड़ों को बिछाया जिससे वह हिन्दुओं की आँखों के सामने सदैव मुसलमानों के जूतों से रगड़ी जाकर अपमानित हों और हिन्दू प्रत्यक्ष देखें कि उन बेजान मूर्तियों में मुसलमानों का प्रतिकार करने की कोई शक्ति नहीं है। उन्होंने मंदिरों और हिन्दू प्रजा से, जो स्वर्ण और रत्न, लूटे उनकी मात्रा मुस्लिम इतिहासकारसैकड़ों और सहस्त्रों मनों में देते हैं। जिन हिन्दुओं का इस्लाम स्वीकार करने से इनकार करने पर वध किया गया, उनकी संखया कभी-कभी लाखों में दी गई है और उनमें से जो अवयस्क बच्चे और स्त्रियाँ गुलाम बनाकर विषय-वासना के शिकार बने, उनकी संखया सहस्त्रों में दी गई है। इस्लाम के अनुसार, उनमें से ४/५ भाग को भारत मेंही आक्रमणकारियों और उसके सैनिकों में बाँट दिये जाते थे और शेष १/५ को, शासकों अथवा खलीफा इत्यादि को भेंट में भेज दिये जाते थे और सहस्त्रों की संखया में वह विदेशों में भेड़ बकरियों की तरह गुलामों की मंडियों में बेंच दिये जाते थे। स्वयं दिल्लीमें भी इस प्रकार की मंडियाँ लगती थीं। भारत की उस समय की आबादी केवल दस-बारह करोड़ रही होगी। ऐसी दशा में लाखों हिन्दुओं के कत्ल और हजारों केगुलाम बनाये जाने से समस्त भारत के हिन्दुओं पर कैसा आतंक छाया होगा, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है।
मुसलमानों के उन हिन्दू-पूर्वजों का चरित्र कैसा था? अल-इदरीसी नामक मुस्लिम इतिहासकार के अनुसार 'न्याय करना उनका स्वभाव है। वह न्याय से कभी परामुख नहीं होते। इनकी विश्वसनीयता, ईमानदारी और अपनी वचनबद्धता को हर सूरत में निभाने की प्रवृति विश्व विखयात है। उनके इन गुणों की खयाति के कारण सम्पूर्ण विश्व के व्यापारी उनसे व्यापार करने आते हैं।(१३)
अलबेरुनी के अनुसार, जो महमूद गजनवी के साथ भारत आया था, अरब विद्वान, बौद्ध भिक्षुओं और हिन्दू पंडितों के चरणों मे बैठकर दर्शन्, ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद, रसायन और दूसरे विषयों की शिक्षा लेते थे। खलीफा मंसूर (७४५-७६) के उत्साह के कारण अनेक हिन्दू विद्वान उसके दरबार में पहुँच गये थे। ७७१ ई. में सिन्धी हिन्दुओं के एक शिष्ट मंडल ने उसको अनेक ग्रंथ भेंट किये थे। ब्रह्म सिद्धांत और ज्योतिष संबंधी दूसरे ग्रंथों का अरबी भाषा में अनुवाद भारतीय विद्वानों की सहायता से इब्राहीम-अल-फाजरी द्वारा बगदाद में किया गया था। बगदाद के खलीफा हारु-अल-रशीद के बरमक मंत्रियों (मूलसंस्कृत पर प्रमुख) के परिवार जो बौद्ध धर्म त्यागकर, मुसलमान हो गये थे, निरन्तर अरबी विद्वानों को भारत में द्गिाक्षा प्राप्त करने के लिये भेजते थे और हिन्दू विद्वानों को बगदाद आने को आमंत्रित करते थे। एक बार जब खलीफा हारु-अल-रशीद एक ऐसे रोग से ग्रस्त हो गये, जो स्थानीय हकीमों की समझ में नहीं आया, तो उन्होंने हिन्दू वैद्यों को भारत से बुलवाया। मनका नामक हिन्दू वैद्य ने उनको ठीक कर दिया। मनका बगदाद में ही बस गया। वह बरमकों के अस्पताल से संबंद्ध हो गया और उसने अनेक हिन्दू ग्रंथों का फारसी और अरबी में अनुवादकिया। इब्न धन और सलीह, जो धनपति और भोला नामक हिन्दुओं के वंशज थे, बगदाद के अस्पतालों में अधीक्षक नियुक्त किये गये थे। चरक, सुश्रुत के अष्टांग हदय निदान और सिद्ध योग का तथा स्त्री रोगों, विष , उनके उतार की दवाइयों, दवाइयों के गुण दोष, नशे की वस्तुओं, स्नायु रोगों संबंधी अनेक रोगों से संबंधित हिन्दू ग्रंथों का वहाँ खलीफा द्वारा पहलवी और अरबी भा षा में अनुवाद कराया गया, जिससे गणित और चिकित्सा शास्त्र का ज्ञान मुसलमानों में फैला। (के.एस.लाल-लीगेसी ऑफ मुस्लिम रूल इन इंडिया, पृ. ३५-३६)। फिर भी इस्लाम इस विज्ञान युक्त संस्कृति को 'जहालिया'अर्थात् मूर्खतापूर्ण संस्कृति मानता है और उसको नष्ट कर देना ही उसका ध्येय रहा है क्योंकि उनका दोष यह था कि वे मुसलमान नहीं थे। इस्लाम के बंदों के लिये उनका यह पाप उन्हें सब प्रकार से प्रताड़ित करने, वध करने,लूटने और गुलाम बनाने के लिये काफी था।
मुस्लिम इतिहासकारों ने इन कत्लों और बधिक आक्रमणकारियों द्वारा वध किये गये लोगों के सिरों की मीनार बनाकर देखने पर आनंदित होने के दृश्यों के अनेक प्रशंसात्मक वर्णन किये हैं। कभी-कभी स्वयं आक्रमणकारियों और सुल्तानों द्वारा लिखित अपनी जीवनियों में उन्होंने इन बर्बरताओं पर अत्यंत हर्ष और आत्मिक संतोष प्रकट करते हुए अल्लाह को धन्यवाद दिया है कि उनके द्वारा इस्लाम की सेवा का इतना महत्त्वपूर्ण कार्य उनके द्वारा सिद्ध हो सका।
इन बर्बरताओं के ये प्रशंसात्मक वर्णन, जिनके कुछ मूल हस्तलेख आज भी उपलब्ध हैं, उन तथाकथित धर्मनिरपेक्षआधुनिक, इतिहासकारों के गले की हड्डी बन गये हैं, जो इन ऐतिहासिक तथ्यों को हिन्दू-मुस्लिम एकता की मृग मरीचिका को वास्तविक सिद्ध करने के उनके प्रयासों में बाधा समझते हैं। इस उद्देश्य से वह इस क्रूरता को हिन्दुओं से छिपाने के लिये झूँठीकहानियों के तानों-बानों की चादरें बुनते हैं। परन्तु ये क्रूरता के ढ़ेरइतने विशाल हैं कि जो छिपाये नहीं छिपते हैं।
दुर्भाग्यवश भारतीय शासकों का चिंतनआज भी वहीं है जो ७वीं द्गाताब्दी में दक्षिण में इस्लाम के प्रवेश के समय वहाँ के हिंदू शासकों का था। यदि उन दिनों खाड़ी देशों से व्यापार द्वारा आर्थिक लाभ का लोभ था तो अब मुस्लिम वोटों की सहायता से प्रांतों और केंद्र में सत्ता प्राप्त करने और सत्ता में बने रहने का लोभ है। यह लोभ साधारण नहीं है। जिस प्रकार करोड़ों और अरबों रुपये केघोटाले प्रतिदिन उजागर हो रहे हैं, जिस प्रकार के मुगलिया ठाठ से हमारे 'समाजवादी धर्मनिरपेक्ष' नेता रहते हैं, वह तो अच्छे-अच्छे ऋषि मुनियों के मन को भी डिगा सकते हैं। इसलिये भारतीय बच्चों को दूषित इतिहास पढ़ाने पर शासन बल देता है। एन.सी.ई.आर.टी. ने, जो सरकारी और सरकार द्वारा सहायता प्राप्त सभी स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों के लेखनऔर प्रकाशन पर नियंत्रण रखने वाला केंद्रीय शासन का संस्थान है, लेखकोंऔर प्रकाशकों के 'पथ प्रदर्शन' के लिये सुझाव दिये हैं। इन सुझावों का संक्षिप्त विवरण नई दिल्ली जनवरी १७,१९७२ के इंडियन एक्सप्रेस में दिया गया है। कहा गया है कि 'उद्देश्य यह है कि अवांछित इतिहास और भाषा की ऐसी पुस्तकों को पाठ्य पुस्तकों में से हटा दिया जाये जिनसे राष्ट्रीय एकता निर्माण में और सामाजिक संगठन के विकसित होने में बाधा पड़ती है-२० राज्यों और तीन केन्द्र शासित प्रदेशों ने एन.सी.ई.आर.टी. के सुझावोंके तहत कार्य प्रारंभ भी कर दिया है। पश्चिमी बंगाल के बोर्ड ऑफ सेकेन्ड्री एजुकेद्गान द्वारा २९ अप्रैल १९७२ को जो अधिसूचना स्कूलों और प्रकाशकों के लिए जारी की गई उसमें भारत में मुस्लिम राज्य के विषय में कुछ 'शुद्धियाँ' करने को कहागया है जैसे कि महमूद गजनवी द्वारा सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण करने का वास्तविक उद्देश्य, औरंगजेब की हिन्दुओं के प्रति नीति इत्यादि। सुझावों में विशेष रूप से कहा गया है कि 'मुस्लिम शासन की आलोचना न की जाये। मुस्लिम आक्रमणकारियों और शासकों द्वारा मंदिरों के विध्वंस का नाम न लिया जाये। 'इस्लाम में बलात् धर्मान्तरण के वर्णन पाठ्य पुस्तकों से निकाल दिये जायें।(१४)
तथाकथित 'धर्मनिरपेक्ष' हिन्दू शासकों और इतिहासकारों द्वारा इतिहास को झुठलाने के इन प्रभावी प्रयासों के फलस्वरूप सरकारी और सभी हिन्दू स्कूलों में शिक्षा प्राप्त हिन्दुओं की नई पीढ़ियाँ एक नितांत झूठ ऐतिहासिक दृष्टिकोण को सत्य मान बैठी हैं कि 'इस्लाम गैर-मुसलमानों के प्रति प्रेम औरसहिद्गणुता के आदेद्गा देता है। भारत पर आक्रमण करने वाले मौहम्मद बिन कासिम, महमूद गज़नवी, मौहम्मद गौरी, तैमूर, बाबर, अब्दाली इत्यादि मुसलमानों का ध्येयलूटपाट करना था, इस्लाम का प्रचार-प्रसार नहीं था। उनके कृत्यों से इस्लाम का मूल्यांकन नहीं किया जाना चाहिये। ये लोग अपनी हिन्दू प्रजा केप्रति दयालु और प्रजावत्सल थे। कभी-कभी उनके मंदिरों को दान देते थे। उन्हें देखकर प्रसन्न होते थे।' जबकि वास्तविकता यह है कि हिन्दुओं के प्रति उनके उस प्रकार के क्रूर आचरण का कारण उन सबके मन में अपने धर्म-इस्लाम के प्रति अपूर्व सम्मान और धर्मनिष्ठा थी ओर इस्लाम के प्रतिधर्मनिष्ठता का अर्थ केवल इस्लाम के प्रति प्रेम ही नहीं है, सभी गैर-इस्लामी धर्मों, दर्शनों और विश्वासों के प्रति घृणा करना भी है।(१५)
मुस्लिम धार्मिक विद्वान् उनको इसीकारण परम आदर की दृष्टि से इस्लाम के ध्वजारोहक के रूप में देखते हैं और अपने बच्चों को भी ऐसा ही करने की शिक्षा देते हैं।
जहाँ एक ओर, हिन्दुओं की भावी पीढ़ियों को वास्तविकता से दूर रखकर भ्रमित किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओरभारत में स्वतंत्रता के पश्चात् खड़े किये गये, लगभग ४० हजार मदरसों और८ लाख मकतवों, में मुस्लिम बच्चों को गैर-इस्लाम से घृणा करना, और इन लुटेरों को इस्लाम के महापुरुष और उनके शासन को, अकबर के कुफ्र को प्रोत्साहन देने वाले शासन से बेहतर बताया जा रहा है। फिर इसमें आश्चर्य की क्या बात है कि भारत सरकार के एक मंत्री (गुलाम नबी आजाद) को कहना पड़ा कि- 'कश्मीर में जमाते इस्लामी द्वारा चलाये जाने वाले मदरसों ने देश के धर्म निरपेक्ष ढाँचे को बहुत हानि पहुँचाई है।.......घाटी के नौजवानों का बन्दूक की संस्कृति से परिचय करा दिया है।'(१६)
मंत्री जी के वक्तव्य से यह भ्रम हो सकता है कि उनका आरोप केवल जमाते इस्लामी द्वारा चलाये जाने वाले मदरसों के लिये ही सत्य है, दूसरों केलिये नहीं। किन्तु डॉ. मुशीरुल हक, जोन केवल स्वयं मदरसा शिक्षा प्राप्त हैं, अपितु विदेशी विश्व-विद्यालयों के भी विद्वान हैं के अनुसार 'सभी मदरसों में पाठ्यचर्या, पाठ्य-पुस्तकें, पाठ्यनीति अकादमिक तथा धार्मिक शिक्षण एक जैसा ही है।'(१७) यह भिन्न हो भी नहीं सकता क्योंकि बुनियादी पुस्तकें कुरान, हदीस इत्यादि एक ही हैं।
अफगानिस्तान में मदरसों में शिक्षा पा रहे सशस्त्र विद्यार्थियों (तालिबान) द्वारा गृह युद्ध में कूदकर जिस प्रकार अपेक्षाकृत उदारवादी मुस्लिम शासकों के दाँत खट्टे कर दिये गये, उससे उड्डयन मंत्री के उपरोक्त उद्धत वक्तव्य को बल मिलता है। यह तालिबान कट्टरवादी (शुद्ध) इस्लाम की स्थापना के लिये समर्पित अनुशासनबद्ध जिहादी सेनाओं के समर्पित योद्धा हैं। उनका उपयोग किसी समय भी इस रूप् में किया जा सकताहै। चाहे अफगानिस्तान हो या काश्मीर अथवा कोई दूसरा देश।
इस प्रारंभिक विश्लेषण के पश्चात् आइये देखें कि भारतीय मुसलमानों के हिन्दू पूर्वजों को किस प्रकार शासकों द्वारा तलवार की नोक पर धर्मपरिवर्तन पर मजबूर होना पड़ा। उनके साथ क्या घटा? वह कैसा आतंक था? अथवा किस प्रकार उनके विश्वास के भोलेपन का लाभ उठाकर उनका धर्म परिवर्तन आक्रामकों एवं शासकों द्वारा किया गया।
४. मुस्लिम आक्रामकों और शासकों द्वारा हिन्दुओं का बलात् धर्म परिवर्तन
०१. मौहम्मद बिन कासिम(७१२ ई.)
इस्लामी सेनाओं का पहला प्रवेश सिन्धमें, १७ वर्षीय मौहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में ७११-१२ ई. में हुआ। प्रारंभिक विजय के पश्चात उसने ईराक के गवर्नर हज्जाज को अपने पत्र में लिखा-'दाहिर का भतीजा, उसके योद्धा औरमुखय-मुखय अधिकारी कत्ल कर दिये गयेहैं। हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित कर लिया गया है, अन्यथा कत्ल कर दिया गया है। मूर्ति-मंदिरों के स्थान पर मस्जिदें खड़ी कर दी गई हैं। अजान दी जाती है।' (१)
वहीं मुस्लिम इतिहासकार आगे लिखता है- 'मौहम्मद बिन कासिम ने रिवाड़ी का दुर्ग विजय कर लिया। वह वहाँ दो-तीन दिन ठहरा। दुर्ग में मौजूद ६००० हिन्दू योद्धा वध कर दिये गये, उनकी पत्नियाँ, बच्चे, नौकर-चाकर सब कैद करलिये (दास बना लिये गये)। यह संखया लगभग ३० हजार थी। इनमें दाहिर की भानजी समेत ३० अधिकारियों की पुत्रियाँ भी थीं।(२)
विश्वासघात
बहमनाबाद के पतन के विषय में 'चचनामे'का मुस्लिम इतिहासकार लिखता है कि बहमनाबाद से मौका बिसाया (बौद्ध) के साथ कुछ लोग आकर मौहम्मद-बिन-कासिम से मिले। मौका ने उससे कहा, 'यह (बहमनाबाद) दुर्ग देश का सर्वश्रेष्ठदुर्ग है। यदि तुम्हारा इस पर अधिकारहो जाये तो तुम पूर्ण सिन्ध के शासक बन जाओगे। तुम्हारा भय सब ओर व्याप्तहो जायेगा और लोग दाहिर के वंशजों का साथ छोड़ देंगे। बदले में उन्होंने अपने जीवन और (बौद्ध) मत की सुरक्षा की माँग की। दाहिर ने उनकी शर्तें मान ली। इकरारनामे के अनुसार जब मुस्लिम सेना ने दुर्ग पर आक्रमण किया तो ये लोग कुछ समय के लिये दिखाने मात्र के वास्ते लड़े और फिर शीघ्र ही दुर्ग का द्वार खुला छोड़कर भाग गये। विश्वासघात द्वारा बहमनाबाद के दुर्ग पर बिना युद्ध किये ही मुस्लिम सेना का कब्जा हो गया।(३)
बहमनाबाद में सभी हिन्दू सैनिकों का वध कर दिया गया। उनके ३० वर्ष की आयु से कम के सभी परिवारीजनों को गुलाम बनाकर बेच दिया गया। दाहिर की दो पुत्रियों को गुलामों के साथ खलीफा को भेंट स्वरूप भेज दिया गया। कहा जाता है कि ६००० लोगों का वध किया गयाकिन्तु कुछ कहते हैं कि यह संखया १६००० थी। 'अलविलादरी' के अनुसार २६०००(४)। मुल्तान में भी ६,००० ६,००० व्यक्ति वध किये गये। उनके सभी रिश्तेदार गुलाम बना लिये गये।(५) अन्ततः सिन्ध् में मुसलमानों ने न बौद्धों को बखशा, न हिन्दुओं को।
०२ सुबुक्तगीन (९७७-९९७)
अल उतबी नामक मुस्लिम इतिहासकार द्वारा लिखित 'तारिखे यामिनी' के अनुसार-'सुल्तान ने उस (जयपाल) के राज्य पर धावा बोलने के अपने इरादे रूपी तलवार की धार को तेज किया जिससे कि वह उसको इस्लाम अस्वीकारने की गंदगी से मुक्त कर सके। अमीर लत्रगानकी ओर बढ़ा जो कि एक शक्तिशाली और सम्पदा से भरपूर विखयात नगर है। उसे विजयकर, उसके आस-पास के सभी क्षेत्रों में, जहाँ हिन्दू निवास करते थे, आग लगा दी गई। वहाँ के सभी मूर्ति-मंदिर तोड़कर वहाँ मस्जिदें बना दी गईं। उसकी विजय यात्रा चलती रही और सुल्तान उन (मूर्ति-पूजा से) प्रदूषित भाग्यहीन लोगों का कत्ल कर मुसलमानों को संतुष्ट करता रहा। इस भयानक कत्ल करने के पश्चात् सुल्तान और उसके मित्रों के हाथ लूट के माल को गिनते-गिनते सुन्न हो गये। विजय यात्रा समाप्त होने पर सुल्तान ने लौट कर जब इस्लाम द्वारा अर्जित विजय का वर्णन किया तो छोटे बड़े सभी सुन-सुन कर आत्म विभोर हो गये और अल्लाह को धन्यवाद देने लगे। (६)
०३. महमूद गजनवी (९९७-१०३०)
भारत पर आक्रमण प्रारंभ करने से पहले,इस २० वर्षीय सुल्तान ने यह धार्मिक शपथ ली कि वह प्रति व र्ष भारत पर आक्रमण करता रहेगा, जब तक कि वह देश मूर्ति और बहुदेवता पूजा से मुक्त होकर इस्लाम स्वीकार न कर ले। अल उतबी इससुल्तान की भारत विजय के विषय में लिखता है-'अपने सैनिकों को शस्त्रास्त्र बाँट कर अल्लाह से मार्ग दर्शन और शक्ति की आस लगाये सुल्तान ने भारत की ओर प्रस्थान किया। पुरुषपुर (पेशावर) पहुँचकर उसने उस नगर के बाहर अपने डेरे गाड़ दिये।(७)
मुसलमानों को अल्लाह के शत्रु काफिरों से बदला लेते दोपहर हो गयी। इसमें १५००० काफिर मारे गये और पृथ्वी पर दरी की भाँति बिछ गये जहाँ वह जंगली पशुओं और पक्षियों का भोजन बन गये। जयपाल के गले से जो हार मिला उसका मूल्य २ लाख दीनार था। उसके दूसरे रिद्गतेदारों और युद्ध में मारे गये लोगों की तलाद्गाी से ४ लाख दीनार का धन मिला। इसके अतिरिक्त अल्लाह ने अपने मित्रों को ५ लाख सुन्दर गुलाम स्त्रियाँ और पुरुष भी बखशो। (८)
कहा जाता है कि पेशावर के पास वाये-हिन्द पर आक्रमण के समय (१००१-३)महमूद ने महाराज जयपाल और उसके १५ मुखय सरदारों और रिश्तेदारों को गिरफ्तार कर लिया था। सुखपाल की भाँति इनमें से कुछ मृत्यु के भय से मुसलमान हो गये। भेरा में, सिवाय उनके, जिन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया, सभी निवासी कत्ल कर दिये गये। स्पष्ट है कि इस प्रकार धर्म परिवर्तन करने वालों की संखया काफी रही होगी।(९)
मुल्तान में बड़ी संखया में लोग मुसलमान हो गये। जब महमूद ने नवासा शाह पर (सुखपाल का धर्मान्तरण के बाद का नाम) आक्रमण किया तो उतवी के अनुसार महमूद द्वारा धर्मान्तरण के जोद्गा का अभूतपूर्व प्रदर्शन हुआ। (अनेक स्थानों पर महमूद द्वारा धर्मान्तरण के लिये देखे-उतबी की पुस्तक 'किताबें यामिनी' का अनुवाद जेम्स रेनाल्ड्स द्वारा पृ. ४५१, ४५२, ४५५, ४६०, ४६२, ४६३ ई. डी-२, पृ-२७, ३०, ३३, ४०, ४२, ४३, ४८, ४९ परिशि ष्ट पृ. ४३४-७८(१०)) काश्मीर घाटी में भी बहुतसे काफिरों को मुसलमान बनाया गया और उस देश में इस्लाम फैलाकर वह गजनी लौट गया।(११)
उतबी के अनुसार जहाँ भी महमूद जाता था, वहीं वह निवासियों को इस्लाम स्वीकार करने पर मजबूर करता था। इस बलात् धर्म परिवर्तन अथवा मृत्यु का चारों ओर इतना आतंक व्याप्त हो गया था कि अनेक शासक बिना युद्ध किये ही उसके आने का समाचार सुनकर भाग खड़े होते थे। भीमपाल द्वारा चाँद राय को भागने की सलाह देने का यही कारण था किकहीं राय महमूद के हाथ पड़कर बलात् मुसलमान न बना लिया जाये जैसा कि भीमपाल के चाचा और दूसरे रिश्तेदारों के साथ हुआ था।(१२)
१०२३ ई. में किरात, नूर, लौहकोट और लाहौर पर हुए चौदहवें आक्रमण के समय किरात के शासक ने इस्लाम स्वीकार कर लिया और उसकी देखा-देखी दूसरे बहुत से लोग मुसलमान हो गये। निजामुद्दीन के अनुसार देश के इस भाग में इस्लाम शांतिपूर्वक भी फैल रहा था, और बलपूर्वक भी।(१३) सुल्तान महमूद कुरान का विद्वान था और उसकी उत्तम परिभाषा कर लेता था।(१३क) इसलिये यह कहना कि उसका कोई कार्य इस्लाम विरुद्ध था, झूठा है।
राष्ट्रीय चुनौती
हिन्दुओं ने इस पराजय को राष्ट्रीय चुनौती के रूप में लिया। अगले आक्रमणके समय जयपाल के पुत्र आनंद पाल ने उज्जैन, ग्वालियर, कन्नौज, दिल्ली और अजमेर के राजाओं की सहायता से एक बड़ी सेना लेकर महमूद का सामना किया। फरिश्ता लिखता है कि ३०,००० खोकर राजपूतों ने जो नंगे पैरों और नंगे सिर लड़ते थे, सुल्तान की सेना में घुसकर थोड़े से समय में ही तीन-चार हजार मुसलमानों को काट कर रख दिया। सुल्तान युद्ध बंद कर वापिस जाने की सोच ही रहा था कि आनंद पाल का हाथी अपने ऊपर नेपथा के अग्नि गोले के गिरने से भाग खड़ा हुआ। हिन्दू सेना भी उसके पीछे भाग खड़ी हुई।(१४)
सराय (नारदीन) का विध्वंस
सुल्तान ने (कुछ समय ठहरकर) फिर हिन्द पर आक्रमण करने का इरादा किया।अपनी घुड़सवार सेना को लेकर वह हिन्द के मध्य तक पहुँच गया। वहाँ उसने ऐसे-ऐसे शासकों को पराजित किया जिन्होंने आज तक किसी अन्य व्यक्ति के आदेशों का पालन करना नहीं सीखा था। सुल्तानने उनकी मूर्तियाँ तोड़ डाली और उन दुष्टों को तलवार के घाट उतार दिया। उसने इन शासकों के नेता से युद्ध कर उन्हें पराजित किया। अल्लाह के मित्रों ने प्रत्येक पहाड़ी और वादी को काफिरों के खून से रंग दिया और अल्लाह ने उनको घोड़े, हाथियों और बड़ी भारी संपत्ति बखशी। (१५)
नंदना की लूट
जब सुल्तान ने हिंद की मूर्ति पूजा से मुक्त कर द्गाुद्ध कर दिया और उनके मंदिरों के स्थान पर मस्जिदें बना दीं, तब उसने हिन्द की राजधानी परआक्रमण की ठानी जिससे वहाँ के मूर्तिपूजक निवासियों को अल्लाह की एकता में विश्वास न करने के कारण दंडित करे। १०१३ ई. में एक अंधेरी रात्रि को उसने एक बड़ी सेना के साथ प्रस्थान किया।(१६)
(विजय के पश्चात्) सुल्तान लूट का भारी सामान ढ़ोती अपनी सेना के पीछे-पीछे चलता हुआ, वापिस लौटा। गुलाम तो इतने थे कि गजनी की गुलाम-मंडी में उनके भाव बहुत गिर गये। अपने (भारत) देश में अति प्रतिष्ठा प्राप्त लोग साधारण दुकानदारों के गुलाम होकर पतित हो गये। किन्तु यह तो अल्लाह की महानता है कि जो अपने महजब को प्रतिष्ठित करता है और मूति-पूजा को अपमानित करता है।(१७)
थानेसर में कत्ले आम
थानेसर का शासक मूर्ति-पूजा में घोर विश्वास करता था और अल्लाह (इस्लाम) को स्वीकार करने को किसी प्रकार भी तैयार नहीं था। सुल्तान ने (उसके राज्य से) मूर्ति पूजा को समाप्त करने के लिये अपने बहादुर सैनिकों केसाथ कूच किया। काफिरों के खून से, नदीलाल हो गई और उसका पानी पीने योग्य नहीं रहा। यदि सूर्य न डूब गया होता तो और अधिक शत्रु मारे जाते। अल्लाह की कृपा से विजय प्राप्त हुई जिसने इस्लाम को सदैव-सदैव के लिये सभी दूसरे मत-मतान्तरों से श्रेष्ठ स्थापित किया है, भले ही मूर्ति पूजक उसके विरुद्ध कितना ही विद्रोह क्यों न करें। सुल्तान, इतना लूट का माल लेकर लौटा जिसका कि हिसाब लगाना असंभव है। स्तुति अल्लाह की जो सारे जगत का रक्षक है कि वह इस्लाम और मुसलमानों को इतना सम्मान बख्शता है।(१८)
अस्नी पर आक्रमण
जब चन्देल को सुल्तान के आक्रमण का समाचार मिला तो डर के मारे उसके प्राण सूख गये। उसके सामने साक्षात मृत्यु मुँह बाये खड़ी थी। सिवाय भागने के उसके पास दूसरा विकल्प नहींथा। सुल्तान ने आदेश दिया कि उसके पाँच दुर्गों की बुनियाद तक खोद डालीजाये। वहाँ के निवासियों को उनके मल्बे में दबा दिया अथवा गुलाम बना लिया गया।चन्देल के भाग जाने के कारणसुल्तान ने निराश होकर अपनी सेना को चान्द राय पर आक्रमण करने का आदेश दिया जो हिन्द के महान शासकों में से एक है और सरसावा दुर्ग में निवास करता है।(१९)
सरसावा (सहारनपुर) में भयानक रक्तपात
सुल्तान ने अपने अत्यंत धार्मिक सैनिकों को इकट्ठा किया और द्गात्रु पर तुरन्त आक्रमण करने के आदेश दिये। फलस्वरूप बड़ी संखया में हिन्दू मारे गये अथवा बंदी बना लिये गये। मुसलमानों ने लूट की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जब तक कि कत्ल करते-करते उनका मन नहीं भर गया। उसके बाद ही उन्होंने मुर्दों की तलाशी लेनी प्रारंभ की जो तीन दिन तक चली। लूट में सोना, चाँदी, माणिक, सच्चे मोती, जो हाथ आये जिनका मूल्य लगभग ३०,०००० (तीस लाख) दिरहम रहा होगा। गुलामों की संखया का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रत्येक को २से लेकर १० दिरहम तक में बेचा गया। द्गोष को गजनी ले जाया गया। दूर-दूर के देशों से व्यापारी उनको खरीदने आये। मवाराउन-नहर ईराक, खुरासान आदि मुस्लिम देश इन गुलामों से पट गये। गोरे, काले, अमीर, गरीब दासता की समान जंजीरों में बँधकर एक हो गये।(२०)
०४. सोमनाथ का पतन (१०२५)
अल-काजवीनी के अनुसार 'जब महमूद सोमनाथ के विध्वंस के इरादे से भारत गया तो उसका विचार यही था कि (इतने बड़े उपसाय देवता के टूटने पर) हिन्दू (मूर्ति पूजा के विश्वास को त्यागकर)मुसलमान हो जायेंगे।(२१)
दिसम्बर १०२५ में सोमनाथ का पतना हुआ। हिन्दुओं ने महमूद से कहा कि वह जितना धन लेना चाहे ले ले, परन्तु मूर्ति को न तोड़े। महमूद ने कहा कि वहइतिहास में मूर्ति-भंजक के नाम से विखयात होना चाहता है, मूर्ति व्यापारी के नाम से नहीं। महमूद का यह ऐतिहासिक उत्तर ही यह सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है कि सोमनाथ के मंदिर को विध्वंस करने का उद्देश्य धार्मिक था, लोभ नहीं।
मूर्ति तोड़ दी गई। दो करोड़ (२०,०००,०००) दिरहम की लूट हाथ लगी, पचास हजार (५००००) हिन्दू कत्ल कर दिये गये।(२१क)
लूट में मिले हीरे, जवाहरातों, सच्चे मोतियों की, जिनमें कुछ अनार के बराबर थे, गजनी में प्रदर्शनी लगाई गई जिसको देखकर वहाँ के नागरिकों और दूसरे देशों के राजदूतों की आँखें फैल गई।(२२)
०५. मौहम्मद गौरी (११७३-१२०६)
हसन निजामी के 'ताजुल मआसिर' के अनुसार इस्लाम की सेना को पूरी तरह सुसज्जित कर विजय और शक्ति की पताकाओं को उड़ाता अल्लाह की सहायता पर भरोसा कर उस (मौहम्मद गौरी) ने हिन्दुस्तान की ओर प्रस्थान किया।(२३)
मुस्लिम सेना ने पूर्ण विजय प्राप्त की। ०७. सुल्तान इल्तुतमिश (१२१०-१२३
- १२३१ ई. में इल्तुतमिश ने ग्वालियर परआक्रमण किया और बड़ी संखया में लोगों को गुलाम बनाया। उसके द्वारा पकड़े औरगुलाम बनाये गये महाराजाओं के परिवारीजनों की गिनती देना संभव नहीं है। (३८)अवध में चंदेल वंश के त्रैलोक्य वर्मन के विरुद्ध युद्ध में विजयी होने पर 'काफिरों के सभी बच्चे, पत्नियाँ और परिवारीजन विजयी सुल्तान के हाथ पड़े। १२५३ ई. में रणथम्भौर में और १२५९ में हरियाणा औरशिवालिक पहाड़ों में कम्पिल, पटियाली और भोजपुर में यही कहानी दोहराई गई। (३९)हिन्दू आसानी से इस्लाम ग्रहण नहीं करते थे क्योंकि अल-बेरुनी के अनुसारहिन्दू यह समझते थे कि उनके धर्म से बेहतर दूसरा धर्म नहीं है और उनकी संस्कृति और विज्ञान से बढ़कर कोई दूसरी संस्कृति और विज्ञान नहीं है।(४०) दूसरा कारण यह था जैसा कि इल्तुतमिश को उसके वजीर निजामुल मुल्क जुनैदी ने बताया था 'इस समय हिन्दुस्तान में मुसलमान दाल में नमक के बराबर हैं। अगर जोर जबरदस्ती की गयी तो वे सब संगठित हो सकते हैं और मुसलमानों को उनको दबाना संभव नहीं होगा। जब कुछ वर्षों के बाद राजधानी में और नगरों में मुस्लिम संखया बढ़ जाये और मुस्लिम सेना भी अधिक हो जाये, उस समय हिन्दुओं को इस्लाम और तलवार में से एक का विकल्प देना संभव होगा।'(४१) डॉ. के.एस. लाल केअनुसार, यह स्थिति तेरहवीं शताब्दी के बाद हो गयी थी और इसलिये बलात् धर्मान्तरण का कार्य तेहरवीं शताब्दी के पश्चात् शीघ्र गति से चला।इल्तुतमिश ने भी भारत के इस्लामीकरण में पूरा योगदान दिया। सन् १२३४ ई. में मालवा पर आक्रमण हुआ। वहाँ पर विदिशा का प्राचीन मंदिर नष्ट कर दिया गया। बदायुनी लिखता है : '६०० वर्ष पुराने इस महाकाल के मंदिर को नष्ट कर दिया गया। उसकी बुनियाद तक खुदवा कर राय विक्रमाजीत की प्रतिमा तोड़ डाली गयी। वह वहाँ से पीतल की कुछप्रतिमाएँ उठा लाया। उनको पुरानी दिल्ली की मस्जिद के दरवाजों और सीढ़ियों पर डालकर लोगों को उन पर चलने का आदेश दिया।(४२) ५०० वर्षों के मुस्लिम आक्रमणों ने हिन्दुओं को इतना दरिद्र बना दिया था कि मंदिरों में सोने की मूर्तियों के स्थान पर पीतल की मूर्तियाँ रखी जाने लगी थीं।किन्तु अभी तो अत्याचार और भी बढ़ने थे।इल्तुतमिश के पश्चात् बलबन (१२६५-१२८७) का राज्य आया। रुहेलखण्ड के कटिहार क्षेत्र केराजपूतों के प्रदेश ने कभी मुसलमानों की सत्ता स्वीकार नहीं की थी। सन् १२८४ ई. मेंबलबन ने गंगा पार कर इस क्षेत्र पर आक्रमण किया। बदायुनी के अनुसार 'दिल्ली छोड़ने के दो दिन बाद वह कटिहार पहुँचा। ७ वर्ष के ऊपर के सभी पुरुषों को कत्ल कर दिया गया। शेष स्त्री-पुरुष सभी गुलाम बना लिये गये।'
०८. खिलजी सुल्तान (१२९०-१३१६)
जब जलालुद्दीन खिलजी ने (१२९०-१२९६)रणथम्भौर पर चढ़ाई की तो रास्ते में झौन नामक स्थान पर उसने वहाँ के हिन्दू मंदिरों को नष्ट कर दिया। उनकी खंडित मूर्तियों को जामा मस्जिद, दिल्ली, की सीढ़ियों पर डालने के लिए भेज दिया गया जिससे वह मुसलमानों द्वारा सदैव पददलित होती रहें।(४४)
किन्तु इसी जलालुद्दीन ने, मलिक छज्जू मुस्लिम विद्रोही को कत्ल करने से, यह कहकर इंकार कर दिया कि 'वहएक मुसलमान का वध करने से अपनी सिहांसन छोड़ना बेहतर समझता है।'(४५) दया और भातृभाव केवल मुसलमानों के लिये है। काफिर के लिये नहीं।(४६)
अलाउद्दीन खिलजी (१२९६-१३१६) जो जलालुद्दीन का भतीजा और दामाद भी था, और जिसका पालन पोण भी जलालुद्दीन ने पुत्रवत किया था, धोखे से, वृद्ध सुल्तान का वध कर दिल्ली की गद्दी पर बैठा। हिन्दुओं से लूटे हुए धन को दोनों हाथों से लुटा कर उसने जलालुद्दीन के विश्वस्त सरदारों को खरीद लिया अथवा कत्ल कर, दिया। जब उसकी गद्दी सुरक्षित हो गई तो उसका काफिरों (हिन्दुओं) के दमन और मूर्तियों को खंडित करने का धार्मिक उन्माद जोर मारने लगा। १२९७ ई. में उसने अपने भ्राता मलिक मुइजुद्दीन और राज्य के मुखय आधार नसरत खाँ को, जो एक उदार और बुद्धिमान योद्धा था, गुजरात में कैम्बे (खम्भात) पर, जो आबादी और संपत्ति में भारत का विखयात नगर था, आक्रमण के लिये भेजा। चौदह हजार (१४,०००) घुड़सवार और बीस हजार (२०,०००)पैदल सैनिक उनके साथ थे।(४७)
मंजिल पर मंजिल पार करते उन्होंने खम्भात पहुँच कर प्रातःकाल ही उसे घेर लिया, जब वहाँ के काफिर निवासी सोये हुए थे। उनीदे नागरिकों की समझ में नहीं आया कि क्या हुआ। भगदड़ में माताओं की गोद से बच्चे गिर पड़े। मुसलमान सैनिकों ने इस्लाम की खातिर उस अपवित्र भूमि में क्रूरतापूर्वक चारों ओर मारना काटना प्रारंभ कर दिया। रक्त की नदियाँ बह गई। उन्होंने इतना सोना और चाँदी लूटा जोकल्पना के बाहर है और अनगिनत हीरे, जवाहरात, सच्चे मोती, लाल औरपन्ने इत्यादि। अनेक प्रकार के छपे, रंगीन, जरीदार रेशमी और सूती कपड़े।(४८)
'उन्होंने बीस हजार (२०,०००) सुंदर युवतियों को और अनगिनत अल्पायु लड़के-लड़कियों को पकड़ लिया। संक्षेप में कहें तो उन्होंने उस प्रदेश में भीषण तबाही मचा दी। वहाँ के निवासियों का वध कर दिया उनके बच्चोंको पकड़ ले गये। मंदिर वीरान हो गये। सहस्त्रों मूर्तियाँ तोड़ डाली गयीं।इनमें सबसे बड़ी और महत्त्वपूर्ण सोमनाथ की मूर्ति थी। उसके टुकड़े दिल्ली लाकर जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर बिछा दिये गये जिससे प्रजा इस शानदार विजय के परिणामों को देखे और याद करे। (४९)
रणथम्भौर पर आक्रमण के लिये अलाउद्दीन ने स्वयं प्रस्थान किया।जुलाई १३०१ ई. में विजय प्राप्त हुई। किले के अंदर तमाम स्त्रियाँ जौहर करचिता में प्रवेश कर गईं। उसके बाद पुरुष तलवार लेकर मुस्लिम सेना पर टूट पड़े और कत्ल कर दिये गये। सभी देवी देवताओं के मंदिर ध्वस्त कर दिये गये। (४९क)
अलाउद्दीन खिलजी ने दिल्ली में कुतुबमीनार से भी बड़ी मीनार बनाने काइरादा किया तो पत्थरों के लिए हिन्दुओं के मंदिरों को तुड़वा दिया गया। उस स्थान पर उन मंदिरों के पत्थरों से ही'कव्बतुल इस्लाम मस्जिद' का निर्माण भी किया जो आज भी शासन द्वारा सुरक्षित राष्ट्रीय स्मारकों के रूप में मौजूद है।
उज्जैन में भी सभी मंदिर और मूर्तियों का यही हाल हुआ। मालवा की विजय पर हर्ष प्रकट करते हुए खुसरो लिखता है कि 'वहाँ की भूमि हिन्दुओं के खून से तर हो गई।' (५०)
चित्तौड़ के आक्रमण में अमीर खुसरो केअनुसार इस सुल्तान ने ३,००० (तीन हजार) हिन्दुओं को कत्ल करवाया। (५१)
'जो वयस्क पुरुष इस्लाम स्वीकार करनेसे इंकार करते थे, उनको कत्ल कर देना और द्गोष सबको, स्त्रियों और बच्चों समेत, गुलाम बना लेना साधारण नियम था। अलाउद्दीन खिलजी के ५०,००० (पचास हजार) गुलाम थे जिनमें अधिकांद्गा बच्चे थे। फीरोज तुगलक के एक लाख अस्सी हजार (१,८०,०००) गुलामथे।' (५२)
अलाउद्दीन खिलजी के समय, जियाउद्दीन बर्नी की दिल्ली का गुलाम मंडली के विषय में की गई टिप्पणी है कि आये दिन मंडी में नये-नये गुलामों की टोलियाँ बिकने आती थीं। (५३) दिल्ली अकेली ऐसी मंडी नहीं थी। भारत और विदेशों में ऐसी गुलाम मंडियों की भरमार थी, जहाँ गुलाम स्त्री, पुरुष और बच्चे भेड़ बकरियों की भाँति बेचे और खरीदे जातेथे।
अलाउद्दीन खिलजी ही क्यों, अकबर को छोड़कर, सम्पूर्ण मुस्लिम काल में, जो हिन्दू कैदी पकड़ लिये जाते थे, उनमें से जो मुसलमान बनने से इन्कार करते थे, उन्हें बध कर दिया जाता था अथवा गुलाम बनाकर निम्न कोटि के कामों (पाखाना साफ करना इत्यादि) पर लगा दिया जाता था। शेष गुलामों को सेना ओर शासकों के बीच बाँट दिया जाता था। फालतू गुलाम मंडियों में बेंच दिये जाते थे।
जिन लोगों ने अमेरिका में गुलामों कीदुर्दशा पर लिखा, विश्व विखयात उपन्यास 'टाम काका की कुटिया' पढ़ा होगा, उन्हें स्वप्न में भी यह विचार नहीं आया होगा कि भारत में उनके पूर्वजों के साथ भी वही पशुवत व्यवहार हुआ है। गुलामों की मंडियों में बिकने वाले परिवारी जनों के एक-दूसरे से बिछड़ने के सहस्त्रों हदयविदारक दृश्य प्रतिदिन ही देखने को मिलते रहे होंगे। पिता कहीं जा रहा है, तो पुत्र कहीं; माता कहीं और युवा पुत्री कहीं किसी के विषय भोग की जीवित लाश बनकर, जो मन भर जाने पर, उसेकहीं और बेच देगा।
मुस्लिमों का हिन्दू राजा से विश्वासघात
जब मलिक काफूर ने मालाबार पर आक्रमण किया तो वहाँ के यहाँ राजा के लगभग बीस हजार (२०,०००)मुस्लिम सैनिक थे जोलम्बे समय से दक्षिण भारत में रह रहे थे, अपने राजा से विश्वासघात कर मुस्लिम सेना में जा मिले।(५४)
इतिहास मुस्लिम सेनाओं द्वारा अपने गैर-मुस्लिम शासकों का साथ छोड़कर मुस्लिम आक्रांताओं से जा मिलने की अनेक घटनाओं से भरा पड़ा है। दाहिर की मुस्लिम सेना हो या विजयनगरकी, अथवा १९४८ में काश्मीर की या काबुल में रूस की, उनका वह व्यवहार सामान्य है और इसके विपरीत केवल अपवाद हैं। कारण यह है कि इस्लाम एक मुसलमान को दूसरे मुसलमान का रक्त बहाने से अति कठोरतापूर्वक मना करता है।
गुजरात में १३१६ ई. में, मुस्लिम राज्य हो गया। उसका शासक वजीहउल मुल्क धर्मान्तरित राजपूत मुस्लिम था।
0 comments :
Post a Comment
कृपया कॉमेंट करें