राजा मान सिँह आमेर राजा भगवान
दास के भाई जगतसिंह के पुत्र थे जिन्होंने स्वयं नि:सन्तान होने के कारण
इन्हें दत्तक ले लिया था। मानसिंह पहले पहले संवत 1561 में अकबर के दरबार
में गए थे मान सिंह राजा भगवान दास के पुत्र थे। बुद्धिमानी, साहस, सम्बन्ध
और उच्च वंश के कारण अकबर के राज्य के स्तम्भों और सरदारों के अग्रणी थे।
इनके कार्यों और व्यवहार से इन्हेंबादशाह भी मिरज़ा राजा के नाम से पुकारते
थे।
राणा और मानसिंह का युद्ध
सन 1576 ई. के अन्त में मानसिंह राणा प्रतापसिंह को दण्ड देनेपर नियत हुए। आरम्भ में गुलकन्द के पास जिसे चित्तौड़के अनन्तर बनवाया था घोर युद्ध हुआ। इसमें राजा रामसाहतोमर ग्वालियरी पुत्रों के साथ मारे गये। इसी मार–काट मेंराणा और मानसिंह का सामना होने पर युद्ध हुआ और घायल होने पर राणा युद्ध छोडकर चले गए। राजा मानसिंह ने उनके महलों में उतर कर हाथी रामशाह को जो उसके प्रसिद्ध हाथियों में से था दूसरी लूट के साथ दरबार भेजा। परन्तु जब मानसिंह ने उस प्रान्त को लूटने की आज्ञा नहीं दी तब बादशाह ने इन्हें राजधानी मेंबुलाकर दरबार आने की मना कर दी।काबुल की सुबेदारी जब राजा भगवंतदास पंजाब के सूबेदार नियत हुए तब सिंध के पार सीमांत प्रान्त का शासन कुँवरमानसिंह को दिया गया। जब 30वें वर्ष में अकबर के सौतेले भाई मिरज़ा मुहम्मद हक़ीम की जो कि काबुल का शासनकर्ता था कि मृत्यु हो गई तब इन्होंने आज्ञानुसार फुर्ती से काबुल पहुँचकर वहाँ के निवासियों कोशान्ति दी और उसके पुत्र मिरजा अफरासियाब और मिरजा कँकुवाद को राज्य के बुरे–भले अन्य सरदारों के साथ लेकर वे दरबार आए। अकबर ने सिंध नदी तक ठहर कर कुँवर मानसिंह को काबुल का शासनकर्ता नियत किया। इन्होंने बड़ी बहादुरी के साथ रूशानी जातिवालों को लुटेरेपन और विद्रोह से खैवर के रास्ते रोके हुए थे पूरा दण्ड दिया। जब राजा बीरबल स्वाद प्रान्त में यूसुफ़जई के युद्ध में मारे गए और जैनख़ाँ कोका और हक़ीम अबुल फ़तह दरबार बुला लिए गए, तब यह कार्य मानसिंह को सौंपा गया। जब जाबुलिस्तान के शासन पर भगवंतदास नियुक्त हुए और सिंधपार होने पर पागल हो गए तब उस पदपर कुँअर मानसिंह नियत हुए।
मात सुणावै बालगां,
खौफ़नाक रण-गाथ |
काबुल भूली नह अजै,
ओ खांडो, ऎ हाथ ||
काबुल की भूमि अभी तक यहाँ के वीरों द्वारा किये गए प्रचंड खड्ग प्रहारों को नहीं भूल सकी है।उन प्रहारों की भयोत्पादक गाथाओं को सुनाकर माताएं बालकों को आज भी डराकर सुलाती है।
महमूद गजनी के समय से ही आधुनिक शास्त्रों से सुसज्जित यवनों के दलों ने अरब देशों से चलकर भारत पर आक्रमण करना शुरू कर दिया था।ये आक्रान्ता काबुल (अफगानिस्तान)हो कर हमारे देश में आते थे अफगानिस्तान में उन दिनों पांच मुस्लिम राज्य थे जहाँ पर भारी मात्रा में आधुनिक शास्त्रों का निर्माण होता था वे भारत पर आक्रमण करने वाले आक्रान्ताओं को शस्त्र प्रदान करते थे बदले में भारत से लूटकर ले जाने वाले धन का आधा भाग प्राप्त करते थे।
इस प्रकार काबुल का यह क्षेत्र उस समयबड़ा भारी शस्त्र उत्पादक केंद्र बन गयाथा जिसकी मदद से पहले यवनों ने भारत में लुट की व बाद में यहाँ राज्य स्थापना की चेष्टा में लग गए।इतिहासकारों ने इस बात को छुपाया है कि बाबर के आक्रमण से पूर्व बहुत बड़ी संख्या में हिन्दू शासकों के परिवार जनों व सेनापतियों ने राज्य केलोभ में मुस्लिम धर्मअपना लिया था औरयह क्रम बराबर जारी था।ऐसी परिस्थिति में आमेर के शासक भगवानदास व उनके पुत्र मानसिंह ने मुगलों से संधि कर अफगानिस्तान (काबुल) के उन पांच यवन राज्यों पर आक्रमण किया व उन्हें इस प्रकार तहस नहस किया कि वहां आज तक भी राजा मानसिंह के नाम की इतनी दहशत फैली हुई है कि वहां की स्त्रियाँ अपने बच्चों को राजा मानसिंह के नाम से डराकर सुलाती है। राजा मानसिंह ने वहां के तमाम हथियार बनाने वाले कारखानों को नष्ट कर दिया व श्रेष्ठतमहथियार बनाने वाली मशीनोंको वहां लाकर जयगढ़ (आमेर) में स्थापित करवाया।
इस कार्यवाही के परिणाम स्वरुप ही यवनों के भारत पर आक्रमण बंद हुए व बचे-खुचे हिन्दू राज्यों को भारत में अपनी शक्ति एकत्रित करने का अवसर प्राप्त हुआ।मानसिंह की इस कार्यवाहीको तत्कालीन संतो ने भी पूरी तरह संरक्षण दिया व उनकी मृत्यु के बाद हरिद्वार में उनकी स्मृति मे हरकी पेड़ियों पर उनकी एक विशाल छतरी बनवाई।यहाँ तक कि अफगानिस्तान के उन पांच यवन राज्यों पर विजय के चिन्ह स्वरुप जयपुर राज्य के पचरंग ध्वज को धार्मिक चिन्ह के रूप में मान्यता प्रदान की गयी व मंदिरों पर भी पचरंग ध्वज फहराया जाने लगा।
आज भी लोगों की जबान पर सुनाई देता है -
माई एडो पूत जण, जैडौ मान मरद।
समदर खान्ड़ो पखारियो ,काबुल पाड़ी हद।।
नाथ सम्प्रदाय के लोग गंगामाईके भजनों में धर्म रक्षक वीरों के रूप में अन्य राजाओं के साथ राजा मानसिंह का यश गान आज भी गाते है।कछवाहों की जाग़ीर 32वें वर्ष में जब यह ज्ञात हुआ कुँअर ठण्डे देश के कारण घबरा गया है और राजपूत जाति जाबुलिस्तान की प्रजा पर अत्याचार करती है किन्तु कुँअर दुःखियों का पक्ष नहीं लेता तब उसे वहाँ से बुला कर पूर्व की ओर उसके लिए जागीरी नियुक्त की गई। स्वयं रूशानियों का दमन करना निश्चित किया। उसी वर्ष जब बिहार प्रान्त में कछवाहों कीजाग़ीर नियुक्त हुई तब कुँअर मानसिंह वहाँ का शासनकर्ता नियत हुआ।
पाँच हज़ारी मनसब 34वें वर्ष में इनके पिता की मृत्यु पर इन्हें राजा की पदवी और पाँच हज़ारी मनसब मिला। जब यह बिहार गए तब पूर्णमल कंधोरियापर जो बड़ा घमण्ड करता था चढ़ाई करके उसके बहुत से स्थानों पर अधिकार कर लिया। वह नयारस्त दुर्ग में जा बैठा और वहाँ पर से उसने संधि का प्रस्ताव किया। वहाँ से लौट कर इन्होंने राजा संग्राम सिंह पर चढ़ाई की जिसने संधि करके हाथी और उस ओर की अन्य वस्तुएँ भेंट में दीं। राजा मानसिंह पटना लौट आया और रणपति चरवा पर चढ़ाई कर वहाँ से बहुत लूट पाई।उड़ीसा पर चढ़ाई जब उस प्रान्त के बलवाइयों ने फिर से सिर उठाया तब 35 वर्ष में इन्होंने झारखंड के रास्ते सेउड़ीसा पर चढ़ाई की। उस प्रान्त के शासनकर्ता सर्वदा अलग शासन करते थे। इससे कुछ पहले प्रतापदेव नामक राजा था जिसके पुत्र वीरसिंह देव ने अपने बुरे स्वभाव के कारण पिता का पद लेना चाहा और अवसर मिलने पर उसे विष दे दिया जिससे वह मरगया। तेलंगाना से आकर मुकुंददेव नामक एक पुरुष इनके यहाँ पर नौकर हो चुका था। वह इस बुरे काम से घबरा कर पुत्र से बदला देने की फिराक में पड़ा। उसने यह प्रकट किया कि मेरी स्त्री मुझे देखने आती है। इस प्रकार बहाना कर शस्त्रों से भरी हुई डोलियाँ दुर्गमें जाने लगीं और बहुत सा युद्ध का सामान दो सौ अनुभवी मनुष्यों के साथ दुर्गमें पहुँच गया। वहाँ उसका काम जल्दी समाप्त हो गया और उसे सरदारी मिल गई। यह कोई अच्छी चाल नहीं है कि पूर्वजों के संचित कोष पर राजा अधिकार कर ले पर इसने कोष के सत्तर तालों को तोड़कर उनमें का संचित धन ले लिया। यद्यपि इसने दान बहुत किया पर यह आज्ञापालन के रास्ते से हट गया। सुलेमान किर्रानी ने जिसका बंगाल पर अधिकार हो गया था अपने पुत्र वायजीद को झारखण्ड के रास्ते से इस प्रान्त पर भेजा और इसकंदर खाँ उजबेग को जो अकबर के पास विद्रोह करके सुलेमान किर्रानी के पास चला आया था साथ कर दिया। राजा ने अपने सुख के कारण दो सेनाएँ झपटराय और दुर्गा तेज़ के अधीन भेजी। ये दोनों स्वामीद्रोही शत्रु के सेनाध्यक्षों से मिल कर युद्धसे लौट आए। बड़ी अतिष्ठा हुई। निरुपाय होकर राजा ने शरीर का त्यागना विचार कर बायजीद का सामना किया। उसकी अधीनता में घोर युद्ध हुआ। जिसमें राजा और झपटराय मारे गए तथा दुर्गा तेज़ सरदार हुआ। सुलेमान ने उसको कपट से अपने पास बुलवा कर मरवा डाला और प्रान्त पर अपना अधिकार कर लिया।
मुनइम ख़ाँ ख़ानख़ानाँ और ख़ानेजहाँ तुर्कमान की सूबेदारी में उस प्रान्त से बहुतेरे सरदार साम्राज्य में चल आए। बंगाल के सरदारों की गड़बड़ी में कतलू ख़ाँ लोहानीवहाँ प्रबल हो उठा। जब राजा उसी वर्ष प्रान्त में गया तब कतलू ने उन पर चढ़ाई की। जब बादशाही सेना परास्त हो गई तब राजा दृढ़ नहीं रह सकते थे। पर कतलू जो की बीमार था एकाएक मर गया और उसके प्रधान ईसा ने उसके छोटे पुत्र नसीर ख़ाँ को सरदार बनाकर राजा से संधि कर ली । राजा जगन्नाथ जी का मन्दिर उसकी भूसम्पत्ति सहित लेकर बिहार लौट गए। यह मन्दिर हिन्दुओं के प्रसिद्ध तीर्थों में से एक है और परसोतम नगर में समुद्र के पास है। उसमें श्रीकृष्ण जी , उनके भाई और बहिन की चंदन की मूर्तियाँ हैं।जगन्नाथ मंदिर कहते हैं कि इससे चार हज़ार और कुछ वर्ष पहले नीलगिरि पर्वत के शासनकर्ता राजा इन्द्रमणी ने किसी महात्मा के कहने पर बड़ा नगर बसाया। राजा को एक रात्रि स्वप्न हुआ कि उसे एक दिन एक लकड़ी बावन अंगुल लम्बी और डेढ़ हाथ चौड़ी मिली है। वह ईश्वर का शरीर है और उसे लेकर उसने गृह में सात दिन तक बन्द रखा है। इसके अनन्तर इसी मन्दिर में रखकर उसने उसके पूजन का प्रबन्ध किया है। जब उसकी निद्रा खुली तब जगन्नाथ जी नाम रखा। कहते हैं कि सुलेमान किर्रानी के नौकर कालापहाड़ ने जब वहाँ पर अधिकार किया तब उसने इस लकड़ी को आग में डाल दिया था पर वह जलीही नहीं। तब उसने उसे नदी में फिंकवा दिया। पर वह फिर से लौट आई। कहते हैं कि इस मूर्ति को छः बार स्नान कराते और नए वस्त्र धारण कराते हैं। पचास–साठ ब्राह्मण सेवा में रहते हैं। प्रति वर्ष जब बड़ा रथ खींचकर उस मूर्ति के सामने लाते हैं तब बीस सहस्र मनुष्य साथ में रहते हैं। उस रथ में सोलह पहिए लगे हुए हैं। उस पर मूर्तियों को सवार कराते हैं और उपदेश देते हैं कि जो उसे खींचेगा पाप से शुद्ध हो जाएगा। संसार की कठिनाई न देखकर उससे बहुत सी सिद्धाई देखना चाहते हैं।
जब तक कतलू का वक़ील ईसा जीवित रहा तब तक उसने राजा के साथ की हुई प्रतिज्ञा की रक्षा की। उसके अनन्तर कतलू के पुत्रों ख्वाजा सुलेमान और ख्वाजा उसमान ने संधि भंग कर विद्रोह आरम्भ कर दिया। 37वें वर्ष राजा ने उनका दमन करने के लिए और उस प्रान्त पर अधिकार करने के लिए दृढ़ संकल्प किया।बंगाल का सूबेदार सईद ख़ाँ भी पहुँचा।कड़े युद्धों के अनन्तर वे परास्त होकर भागे और राजा रामचन्द्र की शरण में जो कि उस प्रान्त का भारी भूम्याधिकारी था गए। यद्यपि सईद ख़ाँ बंगाल लौट गया पर राजा ने पीछा करने से हाथ न उठाकर सारंगगढ़ को जहाँ पर उन्होंने शरण ली थी घेर लिया। निरुपाय होकर उसने राजासे भेंटकी। सरकार ख़लीफ़ाबाद में उनके लिए जाग़ीर नियत करके उड़ीसा प्रान्त को साम्राज्य में मिला लिया।ख़ुसरो का अभिभावक नियुक्त 39वें वर्ष सुल्तान ख़ुसरो को पाँच हज़ारी मनसब और उड़ीसा जाग़ीर में मिली थी राजा मानसिंह उसका अभिभावक नियुक्त होकर बंगाल और उस प्रान्त का शासनकर्ता हुआ। राजा मानसिंह ने अपने उपायों और तलवार के बल से भाटी प्रान्त और दूसरे भूम्याधिकारियों की बहुत सी भूमि पर अधिकार कर साम्राज्य में मिला लिया। 40वें वर्ष में आक महल के पास का स्थान पसन्द किया गया क्योंकि वहाँ पर लड़ाई का डर कम था। शेरशाह भी इस स्थान से प्रसन्न रहता था। इस उस प्रान्त की राजधानी नियत कर अकबर नगर नाम रखा गया। इसका नाम राजमहल भी है। 41वें वर्ष में कूच घोड़ाघाट के उत्तर प्रजा जो एक सम्पन्न प्रान्त है 200 कोस लम्बा और 40 से 100 कोस तक चौड़ा है। के राजालक्ष्मीनारायण ने अधीनता स्वीकृत कर राजा मानसिंह से भेंट की और अपनी बहिन राजा को ब्याह दी।बंगाल का विद्रोह 44वें वर्ष जब अकबर दक्षिण की ओर चला तब सुल्तान सलीम राणा को दण्ड देने के लिए अजमेर प्रान्त पर नियत किया गया था राजा को बंगाल की सूबेदारी के सहित शहजादे के साथ नियत किया। उस समय ईसा के मरने से जो वहाँ का सरदार था राजा ने उस प्रान्त का शासन सहज समझकर अपने बड़े पुत्र जगतसिंह को अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा। जगतसिंह की मृत्यु रास्ते मेंही हो गई। उसके पुत्र महासिंह को जो कि अल्पवयस्क था बंगाल भेजा। 45वें वर्ष में कतल के पुत्र ख्वाजा उसमान ने विद्रोह मचाया। राजा के सैनिकों ने सहज समझ कर युद्ध किया पर वे परास्त हुए। यद्यपि बंगाल हाथ से नहीं निकल गया पर उसके बहुत से स्थानों से वे अधिकृत हो गए। शहजादा सुल्तान सलीम जो शारीरिक सुख,मद्यपान और बुरे संग–साथ के कारण बहुत दिन तक अजमेर में ठहर कर उदयपुर चला गया कार्य पूर्ण होने के पहले ही स्वयं अपने मन से पंजाब चला गया। वहीं एकाएक बंगाल के विद्रोह का समाचार मिला। राजामानसिंह को उस ओर विदा किया और कुछ बहकावे से शाहजादा आगरा लेने चला। जब मरियम मकानी उसे समझाने के लिए जाने को दुर्ग में सवार हुई तब शाहजादा लज्जा के मारे राजधानी के चारकोस इधर ही लौट कर नाव पर सवार होकर प्रयाग चला गया राजा शाहजादे से अलग होकर बंगाल के विद्रोहियों को दण्डदेने चला और उसने शेरपुर के पास युद्ध कर शत्रु को पूर्णतयः परास्त किया। मीर अब्दुर्रज़्ज़ाक़ मामूरी जो कि बंगाल प्रान्त का हब्शी था युद्ध में हथकड़ी–बेड़ी सहित पकड़ा गया। इसके अनन्तर जब उस प्रान्त का प्रबन्ध ठीक हो गया तब दरबार पहुँचकर राजा मानसिंह सात हज़ारी 7000 सवार का मनसब कि उस समय तक कोई भारी सरदार पाँच हज़ारी मनसब से बढ़कर नहीं था, पर इसके अनन्तर मिरज़ा शाहरुख और मिरज़ा अज्जीज को भी यह पद मिला था पाकर सम्मानित हुए राजा मानसिंह की मृत्यु अकबर की मृत्यु के समय राजा मानसिंह ने सुल्तान ख़ुसरो जो कि प्रजा में युवराज माना जाता था गद्दी पर बैठने के विचार से मिरज़ा अजीज कोका का साथ दिया था पर जहाँगीर ने बंगाल की नियुक्ति निश्चित रख और स्वदेश जाने की छुट्टी देकर अपनी ओर मिला लिया जहाँगीर की राजगद्दी होने पर यह अपने शासन पर चले गए परन्तु उसी वर्ष बंगाल से बदल कर औरों के साथ रोहतास के विद्रोहियों कादमने करने पर नियत हुए। वहाँ से दरबार पहुँचकर तीसरे वर्ष सन् 1630 ई. में इन्हें इसीलिए छुट्टी मिली कि दक्षिण की चढ़ाई का सामान ठीक कर ख़ानख़ानाँ के सहायतार्थ वहाँ जाएँ। ये बहुत वर्षों तक दक्षिण में रहे। वहीं 9वें वर्ष में इनकी मृत्यु हो गई और साठ मनुष्य उनके साथ में जले।शासन व्यवस्था राजा ने बंगाल के शासन के समय बहुत ऐश्वर्य और सामान संचित किया था। यहाँ तक की उनके पास में सौ हाथी थे और उनके सभी सैनिक सुसज्जित थे। इनके यहाँ पर बहुत से विश्वासी सेवक थे जो सभी सरदार थे। कहते हैं उस समय जब दक्षिण का कार्य ख़ानेजहाँ लोदी के हाथ में आया था तब पन्द्रह डंके निशान वाले पाँचहज़ारी जैसे नवाब अब्दुर्रहीम ख़ाँ ख़ानख़ानाँ, राजा मानसिंह, मिरज़ा रुस्तम सफवी, आसफ़ ख़ाँ जाफ़र और शरीफ़ ख़ाँ अमीरुल उमरा और चार हज़ारी से सौ तक वाले सत्रह सौ मनसबदार वहाँ सहायतार्थ सेना में उपस्थित थे। जब बालाघाट में अन्न का यहाँ तक अकाल पड़ा की एक रुपया सेर काभी अन्न नहीं मिलता था तब एक दिन राजा ने मजलिस में कहा कि यदि मैं मुसलमान होता तो प्रतिदिन एक समय तुम लोगों के साथ में भोजन करता। पर मैं वृद्ध हुआ इसलिए मेरा ही पान लीजिए। सबसे पहले ख़ानेजहाँ ने सलाम कर कहा कि मुझे स्वीकार है। दूसरों ने भी इस बात को मान लिया। उसी दिन से राजा ने ऐसा प्रबन्ध किया कि प्रत्येक पाँच हज़ारी को एक सौ रुपया और इसी हिसाब से सदी मनसब वालों तक को दैनिक निश्चितकर प्रति रात्रि को वहरुपया खलीते में रखकर और उस पर अपना नाम लिख कर हर एक के पास भेज देते थे। तीन–चार महीने तककि यह यात्रा होती रही एक भी नागा नहीं हुआ। कैप वालों को रसद पहुँचाने तक आमेर के भाव में बराबर अन्न देते रहे। कहते हैं कि राजा कि विवाहिता स्त्री रानी कुँअर जो बड़ी बुद्धिमता थी देश से सब प्रबन्ध करके भेजती थी। राजा ने यात्रा में मुलसमानों के लिए कपड़े के स्नानागार और मसज़िदें खड़ी कराई थीं और उनमें नियुक्त मनुष्यों को एकसमय भोजन देते थे।
By राज शेखावत सेवदङा
राणा और मानसिंह का युद्ध
सन 1576 ई. के अन्त में मानसिंह राणा प्रतापसिंह को दण्ड देनेपर नियत हुए। आरम्भ में गुलकन्द के पास जिसे चित्तौड़के अनन्तर बनवाया था घोर युद्ध हुआ। इसमें राजा रामसाहतोमर ग्वालियरी पुत्रों के साथ मारे गये। इसी मार–काट मेंराणा और मानसिंह का सामना होने पर युद्ध हुआ और घायल होने पर राणा युद्ध छोडकर चले गए। राजा मानसिंह ने उनके महलों में उतर कर हाथी रामशाह को जो उसके प्रसिद्ध हाथियों में से था दूसरी लूट के साथ दरबार भेजा। परन्तु जब मानसिंह ने उस प्रान्त को लूटने की आज्ञा नहीं दी तब बादशाह ने इन्हें राजधानी मेंबुलाकर दरबार आने की मना कर दी।काबुल की सुबेदारी जब राजा भगवंतदास पंजाब के सूबेदार नियत हुए तब सिंध के पार सीमांत प्रान्त का शासन कुँवरमानसिंह को दिया गया। जब 30वें वर्ष में अकबर के सौतेले भाई मिरज़ा मुहम्मद हक़ीम की जो कि काबुल का शासनकर्ता था कि मृत्यु हो गई तब इन्होंने आज्ञानुसार फुर्ती से काबुल पहुँचकर वहाँ के निवासियों कोशान्ति दी और उसके पुत्र मिरजा अफरासियाब और मिरजा कँकुवाद को राज्य के बुरे–भले अन्य सरदारों के साथ लेकर वे दरबार आए। अकबर ने सिंध नदी तक ठहर कर कुँवर मानसिंह को काबुल का शासनकर्ता नियत किया। इन्होंने बड़ी बहादुरी के साथ रूशानी जातिवालों को लुटेरेपन और विद्रोह से खैवर के रास्ते रोके हुए थे पूरा दण्ड दिया। जब राजा बीरबल स्वाद प्रान्त में यूसुफ़जई के युद्ध में मारे गए और जैनख़ाँ कोका और हक़ीम अबुल फ़तह दरबार बुला लिए गए, तब यह कार्य मानसिंह को सौंपा गया। जब जाबुलिस्तान के शासन पर भगवंतदास नियुक्त हुए और सिंधपार होने पर पागल हो गए तब उस पदपर कुँअर मानसिंह नियत हुए।
मात सुणावै बालगां,
खौफ़नाक रण-गाथ |
काबुल भूली नह अजै,
ओ खांडो, ऎ हाथ ||
काबुल की भूमि अभी तक यहाँ के वीरों द्वारा किये गए प्रचंड खड्ग प्रहारों को नहीं भूल सकी है।उन प्रहारों की भयोत्पादक गाथाओं को सुनाकर माताएं बालकों को आज भी डराकर सुलाती है।
महमूद गजनी के समय से ही आधुनिक शास्त्रों से सुसज्जित यवनों के दलों ने अरब देशों से चलकर भारत पर आक्रमण करना शुरू कर दिया था।ये आक्रान्ता काबुल (अफगानिस्तान)हो कर हमारे देश में आते थे अफगानिस्तान में उन दिनों पांच मुस्लिम राज्य थे जहाँ पर भारी मात्रा में आधुनिक शास्त्रों का निर्माण होता था वे भारत पर आक्रमण करने वाले आक्रान्ताओं को शस्त्र प्रदान करते थे बदले में भारत से लूटकर ले जाने वाले धन का आधा भाग प्राप्त करते थे।
इस प्रकार काबुल का यह क्षेत्र उस समयबड़ा भारी शस्त्र उत्पादक केंद्र बन गयाथा जिसकी मदद से पहले यवनों ने भारत में लुट की व बाद में यहाँ राज्य स्थापना की चेष्टा में लग गए।इतिहासकारों ने इस बात को छुपाया है कि बाबर के आक्रमण से पूर्व बहुत बड़ी संख्या में हिन्दू शासकों के परिवार जनों व सेनापतियों ने राज्य केलोभ में मुस्लिम धर्मअपना लिया था औरयह क्रम बराबर जारी था।ऐसी परिस्थिति में आमेर के शासक भगवानदास व उनके पुत्र मानसिंह ने मुगलों से संधि कर अफगानिस्तान (काबुल) के उन पांच यवन राज्यों पर आक्रमण किया व उन्हें इस प्रकार तहस नहस किया कि वहां आज तक भी राजा मानसिंह के नाम की इतनी दहशत फैली हुई है कि वहां की स्त्रियाँ अपने बच्चों को राजा मानसिंह के नाम से डराकर सुलाती है। राजा मानसिंह ने वहां के तमाम हथियार बनाने वाले कारखानों को नष्ट कर दिया व श्रेष्ठतमहथियार बनाने वाली मशीनोंको वहां लाकर जयगढ़ (आमेर) में स्थापित करवाया।
इस कार्यवाही के परिणाम स्वरुप ही यवनों के भारत पर आक्रमण बंद हुए व बचे-खुचे हिन्दू राज्यों को भारत में अपनी शक्ति एकत्रित करने का अवसर प्राप्त हुआ।मानसिंह की इस कार्यवाहीको तत्कालीन संतो ने भी पूरी तरह संरक्षण दिया व उनकी मृत्यु के बाद हरिद्वार में उनकी स्मृति मे हरकी पेड़ियों पर उनकी एक विशाल छतरी बनवाई।यहाँ तक कि अफगानिस्तान के उन पांच यवन राज्यों पर विजय के चिन्ह स्वरुप जयपुर राज्य के पचरंग ध्वज को धार्मिक चिन्ह के रूप में मान्यता प्रदान की गयी व मंदिरों पर भी पचरंग ध्वज फहराया जाने लगा।
आज भी लोगों की जबान पर सुनाई देता है -
माई एडो पूत जण, जैडौ मान मरद।
समदर खान्ड़ो पखारियो ,काबुल पाड़ी हद।।
नाथ सम्प्रदाय के लोग गंगामाईके भजनों में धर्म रक्षक वीरों के रूप में अन्य राजाओं के साथ राजा मानसिंह का यश गान आज भी गाते है।कछवाहों की जाग़ीर 32वें वर्ष में जब यह ज्ञात हुआ कुँअर ठण्डे देश के कारण घबरा गया है और राजपूत जाति जाबुलिस्तान की प्रजा पर अत्याचार करती है किन्तु कुँअर दुःखियों का पक्ष नहीं लेता तब उसे वहाँ से बुला कर पूर्व की ओर उसके लिए जागीरी नियुक्त की गई। स्वयं रूशानियों का दमन करना निश्चित किया। उसी वर्ष जब बिहार प्रान्त में कछवाहों कीजाग़ीर नियुक्त हुई तब कुँअर मानसिंह वहाँ का शासनकर्ता नियत हुआ।
पाँच हज़ारी मनसब 34वें वर्ष में इनके पिता की मृत्यु पर इन्हें राजा की पदवी और पाँच हज़ारी मनसब मिला। जब यह बिहार गए तब पूर्णमल कंधोरियापर जो बड़ा घमण्ड करता था चढ़ाई करके उसके बहुत से स्थानों पर अधिकार कर लिया। वह नयारस्त दुर्ग में जा बैठा और वहाँ पर से उसने संधि का प्रस्ताव किया। वहाँ से लौट कर इन्होंने राजा संग्राम सिंह पर चढ़ाई की जिसने संधि करके हाथी और उस ओर की अन्य वस्तुएँ भेंट में दीं। राजा मानसिंह पटना लौट आया और रणपति चरवा पर चढ़ाई कर वहाँ से बहुत लूट पाई।उड़ीसा पर चढ़ाई जब उस प्रान्त के बलवाइयों ने फिर से सिर उठाया तब 35 वर्ष में इन्होंने झारखंड के रास्ते सेउड़ीसा पर चढ़ाई की। उस प्रान्त के शासनकर्ता सर्वदा अलग शासन करते थे। इससे कुछ पहले प्रतापदेव नामक राजा था जिसके पुत्र वीरसिंह देव ने अपने बुरे स्वभाव के कारण पिता का पद लेना चाहा और अवसर मिलने पर उसे विष दे दिया जिससे वह मरगया। तेलंगाना से आकर मुकुंददेव नामक एक पुरुष इनके यहाँ पर नौकर हो चुका था। वह इस बुरे काम से घबरा कर पुत्र से बदला देने की फिराक में पड़ा। उसने यह प्रकट किया कि मेरी स्त्री मुझे देखने आती है। इस प्रकार बहाना कर शस्त्रों से भरी हुई डोलियाँ दुर्गमें जाने लगीं और बहुत सा युद्ध का सामान दो सौ अनुभवी मनुष्यों के साथ दुर्गमें पहुँच गया। वहाँ उसका काम जल्दी समाप्त हो गया और उसे सरदारी मिल गई। यह कोई अच्छी चाल नहीं है कि पूर्वजों के संचित कोष पर राजा अधिकार कर ले पर इसने कोष के सत्तर तालों को तोड़कर उनमें का संचित धन ले लिया। यद्यपि इसने दान बहुत किया पर यह आज्ञापालन के रास्ते से हट गया। सुलेमान किर्रानी ने जिसका बंगाल पर अधिकार हो गया था अपने पुत्र वायजीद को झारखण्ड के रास्ते से इस प्रान्त पर भेजा और इसकंदर खाँ उजबेग को जो अकबर के पास विद्रोह करके सुलेमान किर्रानी के पास चला आया था साथ कर दिया। राजा ने अपने सुख के कारण दो सेनाएँ झपटराय और दुर्गा तेज़ के अधीन भेजी। ये दोनों स्वामीद्रोही शत्रु के सेनाध्यक्षों से मिल कर युद्धसे लौट आए। बड़ी अतिष्ठा हुई। निरुपाय होकर राजा ने शरीर का त्यागना विचार कर बायजीद का सामना किया। उसकी अधीनता में घोर युद्ध हुआ। जिसमें राजा और झपटराय मारे गए तथा दुर्गा तेज़ सरदार हुआ। सुलेमान ने उसको कपट से अपने पास बुलवा कर मरवा डाला और प्रान्त पर अपना अधिकार कर लिया।
मुनइम ख़ाँ ख़ानख़ानाँ और ख़ानेजहाँ तुर्कमान की सूबेदारी में उस प्रान्त से बहुतेरे सरदार साम्राज्य में चल आए। बंगाल के सरदारों की गड़बड़ी में कतलू ख़ाँ लोहानीवहाँ प्रबल हो उठा। जब राजा उसी वर्ष प्रान्त में गया तब कतलू ने उन पर चढ़ाई की। जब बादशाही सेना परास्त हो गई तब राजा दृढ़ नहीं रह सकते थे। पर कतलू जो की बीमार था एकाएक मर गया और उसके प्रधान ईसा ने उसके छोटे पुत्र नसीर ख़ाँ को सरदार बनाकर राजा से संधि कर ली । राजा जगन्नाथ जी का मन्दिर उसकी भूसम्पत्ति सहित लेकर बिहार लौट गए। यह मन्दिर हिन्दुओं के प्रसिद्ध तीर्थों में से एक है और परसोतम नगर में समुद्र के पास है। उसमें श्रीकृष्ण जी , उनके भाई और बहिन की चंदन की मूर्तियाँ हैं।जगन्नाथ मंदिर कहते हैं कि इससे चार हज़ार और कुछ वर्ष पहले नीलगिरि पर्वत के शासनकर्ता राजा इन्द्रमणी ने किसी महात्मा के कहने पर बड़ा नगर बसाया। राजा को एक रात्रि स्वप्न हुआ कि उसे एक दिन एक लकड़ी बावन अंगुल लम्बी और डेढ़ हाथ चौड़ी मिली है। वह ईश्वर का शरीर है और उसे लेकर उसने गृह में सात दिन तक बन्द रखा है। इसके अनन्तर इसी मन्दिर में रखकर उसने उसके पूजन का प्रबन्ध किया है। जब उसकी निद्रा खुली तब जगन्नाथ जी नाम रखा। कहते हैं कि सुलेमान किर्रानी के नौकर कालापहाड़ ने जब वहाँ पर अधिकार किया तब उसने इस लकड़ी को आग में डाल दिया था पर वह जलीही नहीं। तब उसने उसे नदी में फिंकवा दिया। पर वह फिर से लौट आई। कहते हैं कि इस मूर्ति को छः बार स्नान कराते और नए वस्त्र धारण कराते हैं। पचास–साठ ब्राह्मण सेवा में रहते हैं। प्रति वर्ष जब बड़ा रथ खींचकर उस मूर्ति के सामने लाते हैं तब बीस सहस्र मनुष्य साथ में रहते हैं। उस रथ में सोलह पहिए लगे हुए हैं। उस पर मूर्तियों को सवार कराते हैं और उपदेश देते हैं कि जो उसे खींचेगा पाप से शुद्ध हो जाएगा। संसार की कठिनाई न देखकर उससे बहुत सी सिद्धाई देखना चाहते हैं।
जब तक कतलू का वक़ील ईसा जीवित रहा तब तक उसने राजा के साथ की हुई प्रतिज्ञा की रक्षा की। उसके अनन्तर कतलू के पुत्रों ख्वाजा सुलेमान और ख्वाजा उसमान ने संधि भंग कर विद्रोह आरम्भ कर दिया। 37वें वर्ष राजा ने उनका दमन करने के लिए और उस प्रान्त पर अधिकार करने के लिए दृढ़ संकल्प किया।बंगाल का सूबेदार सईद ख़ाँ भी पहुँचा।कड़े युद्धों के अनन्तर वे परास्त होकर भागे और राजा रामचन्द्र की शरण में जो कि उस प्रान्त का भारी भूम्याधिकारी था गए। यद्यपि सईद ख़ाँ बंगाल लौट गया पर राजा ने पीछा करने से हाथ न उठाकर सारंगगढ़ को जहाँ पर उन्होंने शरण ली थी घेर लिया। निरुपाय होकर उसने राजासे भेंटकी। सरकार ख़लीफ़ाबाद में उनके लिए जाग़ीर नियत करके उड़ीसा प्रान्त को साम्राज्य में मिला लिया।ख़ुसरो का अभिभावक नियुक्त 39वें वर्ष सुल्तान ख़ुसरो को पाँच हज़ारी मनसब और उड़ीसा जाग़ीर में मिली थी राजा मानसिंह उसका अभिभावक नियुक्त होकर बंगाल और उस प्रान्त का शासनकर्ता हुआ। राजा मानसिंह ने अपने उपायों और तलवार के बल से भाटी प्रान्त और दूसरे भूम्याधिकारियों की बहुत सी भूमि पर अधिकार कर साम्राज्य में मिला लिया। 40वें वर्ष में आक महल के पास का स्थान पसन्द किया गया क्योंकि वहाँ पर लड़ाई का डर कम था। शेरशाह भी इस स्थान से प्रसन्न रहता था। इस उस प्रान्त की राजधानी नियत कर अकबर नगर नाम रखा गया। इसका नाम राजमहल भी है। 41वें वर्ष में कूच घोड़ाघाट के उत्तर प्रजा जो एक सम्पन्न प्रान्त है 200 कोस लम्बा और 40 से 100 कोस तक चौड़ा है। के राजालक्ष्मीनारायण ने अधीनता स्वीकृत कर राजा मानसिंह से भेंट की और अपनी बहिन राजा को ब्याह दी।बंगाल का विद्रोह 44वें वर्ष जब अकबर दक्षिण की ओर चला तब सुल्तान सलीम राणा को दण्ड देने के लिए अजमेर प्रान्त पर नियत किया गया था राजा को बंगाल की सूबेदारी के सहित शहजादे के साथ नियत किया। उस समय ईसा के मरने से जो वहाँ का सरदार था राजा ने उस प्रान्त का शासन सहज समझकर अपने बड़े पुत्र जगतसिंह को अपना प्रतिनिधि बनाकर भेजा। जगतसिंह की मृत्यु रास्ते मेंही हो गई। उसके पुत्र महासिंह को जो कि अल्पवयस्क था बंगाल भेजा। 45वें वर्ष में कतल के पुत्र ख्वाजा उसमान ने विद्रोह मचाया। राजा के सैनिकों ने सहज समझ कर युद्ध किया पर वे परास्त हुए। यद्यपि बंगाल हाथ से नहीं निकल गया पर उसके बहुत से स्थानों से वे अधिकृत हो गए। शहजादा सुल्तान सलीम जो शारीरिक सुख,मद्यपान और बुरे संग–साथ के कारण बहुत दिन तक अजमेर में ठहर कर उदयपुर चला गया कार्य पूर्ण होने के पहले ही स्वयं अपने मन से पंजाब चला गया। वहीं एकाएक बंगाल के विद्रोह का समाचार मिला। राजामानसिंह को उस ओर विदा किया और कुछ बहकावे से शाहजादा आगरा लेने चला। जब मरियम मकानी उसे समझाने के लिए जाने को दुर्ग में सवार हुई तब शाहजादा लज्जा के मारे राजधानी के चारकोस इधर ही लौट कर नाव पर सवार होकर प्रयाग चला गया राजा शाहजादे से अलग होकर बंगाल के विद्रोहियों को दण्डदेने चला और उसने शेरपुर के पास युद्ध कर शत्रु को पूर्णतयः परास्त किया। मीर अब्दुर्रज़्ज़ाक़ मामूरी जो कि बंगाल प्रान्त का हब्शी था युद्ध में हथकड़ी–बेड़ी सहित पकड़ा गया। इसके अनन्तर जब उस प्रान्त का प्रबन्ध ठीक हो गया तब दरबार पहुँचकर राजा मानसिंह सात हज़ारी 7000 सवार का मनसब कि उस समय तक कोई भारी सरदार पाँच हज़ारी मनसब से बढ़कर नहीं था, पर इसके अनन्तर मिरज़ा शाहरुख और मिरज़ा अज्जीज को भी यह पद मिला था पाकर सम्मानित हुए राजा मानसिंह की मृत्यु अकबर की मृत्यु के समय राजा मानसिंह ने सुल्तान ख़ुसरो जो कि प्रजा में युवराज माना जाता था गद्दी पर बैठने के विचार से मिरज़ा अजीज कोका का साथ दिया था पर जहाँगीर ने बंगाल की नियुक्ति निश्चित रख और स्वदेश जाने की छुट्टी देकर अपनी ओर मिला लिया जहाँगीर की राजगद्दी होने पर यह अपने शासन पर चले गए परन्तु उसी वर्ष बंगाल से बदल कर औरों के साथ रोहतास के विद्रोहियों कादमने करने पर नियत हुए। वहाँ से दरबार पहुँचकर तीसरे वर्ष सन् 1630 ई. में इन्हें इसीलिए छुट्टी मिली कि दक्षिण की चढ़ाई का सामान ठीक कर ख़ानख़ानाँ के सहायतार्थ वहाँ जाएँ। ये बहुत वर्षों तक दक्षिण में रहे। वहीं 9वें वर्ष में इनकी मृत्यु हो गई और साठ मनुष्य उनके साथ में जले।शासन व्यवस्था राजा ने बंगाल के शासन के समय बहुत ऐश्वर्य और सामान संचित किया था। यहाँ तक की उनके पास में सौ हाथी थे और उनके सभी सैनिक सुसज्जित थे। इनके यहाँ पर बहुत से विश्वासी सेवक थे जो सभी सरदार थे। कहते हैं उस समय जब दक्षिण का कार्य ख़ानेजहाँ लोदी के हाथ में आया था तब पन्द्रह डंके निशान वाले पाँचहज़ारी जैसे नवाब अब्दुर्रहीम ख़ाँ ख़ानख़ानाँ, राजा मानसिंह, मिरज़ा रुस्तम सफवी, आसफ़ ख़ाँ जाफ़र और शरीफ़ ख़ाँ अमीरुल उमरा और चार हज़ारी से सौ तक वाले सत्रह सौ मनसबदार वहाँ सहायतार्थ सेना में उपस्थित थे। जब बालाघाट में अन्न का यहाँ तक अकाल पड़ा की एक रुपया सेर काभी अन्न नहीं मिलता था तब एक दिन राजा ने मजलिस में कहा कि यदि मैं मुसलमान होता तो प्रतिदिन एक समय तुम लोगों के साथ में भोजन करता। पर मैं वृद्ध हुआ इसलिए मेरा ही पान लीजिए। सबसे पहले ख़ानेजहाँ ने सलाम कर कहा कि मुझे स्वीकार है। दूसरों ने भी इस बात को मान लिया। उसी दिन से राजा ने ऐसा प्रबन्ध किया कि प्रत्येक पाँच हज़ारी को एक सौ रुपया और इसी हिसाब से सदी मनसब वालों तक को दैनिक निश्चितकर प्रति रात्रि को वहरुपया खलीते में रखकर और उस पर अपना नाम लिख कर हर एक के पास भेज देते थे। तीन–चार महीने तककि यह यात्रा होती रही एक भी नागा नहीं हुआ। कैप वालों को रसद पहुँचाने तक आमेर के भाव में बराबर अन्न देते रहे। कहते हैं कि राजा कि विवाहिता स्त्री रानी कुँअर जो बड़ी बुद्धिमता थी देश से सब प्रबन्ध करके भेजती थी। राजा ने यात्रा में मुलसमानों के लिए कपड़े के स्नानागार और मसज़िदें खड़ी कराई थीं और उनमें नियुक्त मनुष्यों को एकसमय भोजन देते थे।
By राज शेखावत सेवदङा
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